________________ 108 देव, शास्त्र और गुरु के बाद तथा सन्ध्याकालीन प्रतिक्रमण के बाद गुरु-वन्दना करनी चाहिए। नैमित्तिक कारणों के उपस्थित होने पर नैमित्तिक-क्रिया के बाद भी वन्दना करना चाहिए। आलोचना, सामायिक, प्रश्न-प्रच्छा, पूजन, स्वाध्याय और अपराधइन प्रसङ्गों के उपस्थित होने पर गुणज्येष्ठ की वन्दना करनी चाहिए। ऐसी वन्दना विनय तप है। स्वार्थवश या भयवश मिथ्यादृष्टि आदि के प्रति की गई वन्दना विनय तप नहीं है, अपितु अज्ञान है। वन्दना के अयोग्य काल जब वन्दनीय आचार्य आदि एकाग्रचित्त हों, वन्दनकर्ता की ओर पीठ किए हुए हों, प्रमत्तभाव में हों, आहार कर रहे हों, नीहार में हों, मल-मूत्रादि का विसर्जन कर रहे हों, ऐसे अवसरों पर वन्दना नहीं करनी चाहिए।' वन्दना की विनयमूलकता गुरु-वन्दना के मूल में विनय है। इस विनय के पाँच भेद हैं - 1. लोकानुवृत्तिहेतुक विनय, 2. कामहेतुक विनय, 3. अर्थहेतुक विनय, 4. भयहेतुक विनय और 5. मोक्षहेतुक विनय। इन पाँच प्रकार की विनयों में से मोक्षहेतुक विनय ही आश्रयणीय है, अन्य नहीं। वन्दना के बत्तीस दोष संयमी की ही वन्दना करनी चाहिए, असंयमी दीक्षागुरु की वन्दना कभी नहीं करनी चाहिए। गुरुवन्दना करते समय निम्न बत्तीस दोषों को बचाना चाहिए। तृतीय अध्याय : गुरु (साधु) 109 1. अनादृत (आदरभावरहित), 2. स्तब्ध (ज्ञान, जाति आदि के मद से युक्त), 3. प्रविष्ट (परमेष्ठियों की अतिनिकटता में), 4. परिपीड़ित (अपने हाथों से घुटनों का स्पर्श करना), 5. दोलायित (झूले की तरह शरीर को आगे-पीछे करते हुए अथवा फल में सन्देह के साथ), 6. अंकुशित (मस्तक पर अंकुश की तरह अंगूठा रखकर), 7. कच्छपरिङ्गित (वन्दना करते समय बैठे-बैठे कछुए की तरह सरकना या कटिभाग को नचाना), 8. मत्स्योद्वर्त (मछली की तरह एक पार्श्व से उछलना), 9. मनोदुष्ट (गुरु आदि के चित्त में खेद पैदा करना), 10. वेदिकाबद्ध (दोनों हाथों से दोनों घुटनों को बांधते हुए या दोनों हाथों से दोनों स्तनों को दबाते हुए), 11. भय (सात प्रकार का भय), 12. विभ्यता (आचार्य-भय), 13. ऋद्धिगौरव (संघ के मुनि मेरे भक्त बन जायेंगे, ऐसी भावना), 14. गौरव (यशः या आहारादि की इच्छा), 15. स्तेनित (गुरु आदि से छिपकर), 16. प्रतिनीत (प्रतिकूलवृत्ति रखकर गुरु का आदेश न मानना), 17. प्रदुष्ट (वन्दनीय से द्वेष रखना, क्षमा न माँगना), 18. तर्जित (अंगुलि से भय दिखाकर या आचार्य से तर्जित होना), 19. शब्द (वार्तालाप करते हुए वन्दना), 20. हेलित (दूसरों का उपहास करना या आचार्य आदि का वचन से तिरस्कार करना), 21. त्रिवलित (मस्तक में त्रिवलि बनाना), 22. कुंचित (संकुचित होकर) 23. दृष्ट (अन्य दिशा की ओर देखना), 24. अदृष्ट (गुरु की आंखों से ओझल होकर या प्रतिलेखना न करना), 25. संघकरमोचन (वन्दना को संघ की ज्यादती मानना), 26. आलब्ध (उपकरण आदि की प्राप्ति होने पर), 27. अनालब्ध (उपकरणप्राप्ति की आशा), 28. हीन (कालादि के प्रमाणानुसार न करना), 29. उत्तरचूलिका (वन्दना शीघ्र करके उसकी चूलिकारूप आलोचना आदि में अधिक समय लगाना), और 30. मूक (मौनभाव), 31. दर्दुर (खूब जोरों से बोलना, जिससे दूसरों की आवाज दब जाए) और 32. सुललित (गाकर पाठ करना)। इसी प्रकार अन्य दोषों की उद्भावना कर लेना चाहिए। वन्दना के पर्यायवाची नाम कृतिकर्म, चितिकर्म, पूजाकर्म तथा विनयकर्म ये वन्दना के पर्यायवाची (एकार्थवाची) नाम हैं। पापों के विनाशन का उपाय 'कृतिकर्म' है अर्थात् जिस १.मू. आ. 578 (आचारवृत्तिटीकासहित) 1. अन.ध. 8.54 2. वही। तथा देखिए, मू.आ. 601, आचारसार 65 3. वाखित्तपराहुतं तु पमत्तं मा कदाई बंदिज्जो। आहारं च करतो णीहारं वा जदि करेदि।। - मू.आ. 599, तथा देखें, अन.ध. 8.53. 4. अन.ध.८.४८; मू.आ. 582 ५.अन.ध. 8.52 ६.अन.ध. 8.98-111, -मू.आ. 605-609