Book Title: Dev Shastra Aur Guru
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad

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Page 62
________________ 106 देव, शास्त्र और गुरु तो प्रवेश से पूर्व उसे पिच्छी से अपने शरीर का प्रमार्जन कर लेना चाहिए, जिससे विरुद्धयोनि-संक्रमण से क्षुद्र जीवों को बाधा न पहुँचे।। अनियत विहार वीतरागी साधु को ममत्वरहित होकर सदा अनियत-विहारी होना चाहिए। अनियत विहार के कई लाभ हैं। जैसे- 1. सम्यग्दर्शन की शुद्धि, 2. स्थितिकरण, 3. रत्नत्रय की भावना एवं अभ्यास, 4. शास्त्रकौशल, 5. समाधिमरण के योग्य क्षेत्र की मार्गणा, 6. तीर्थङ्करों की जन्मभूमि आदि के दर्शन, 7. परीषह-सहन करने की शक्ति, 8. देश-देशान्तर की भाषाओं का ज्ञान, 9. अनेक मुनियों आदि का संयोग (जिससे आचारादि की विशेष जानकारी होती है), 10. अनेक आचार्यों के उपदेशों का लाभ आदि। अर्हन्त भी अनियतविहारी हैं, परन्तु उनका विहार इच्छारहित होता है।' विहारयोग्य क्षेत्र एवं मार्ग साधु को विहार के लिए प्रासुक और सुलभवृत्ति योग्य क्षेत्रों का ध्यान रखना चाहिए। जैसे- जहाँ गमन करने से जीवों को बाधा न हो, जो त्रस और वनस्पति जीवों से रहित हो, जहाँ बहुत पानी या कीचड़ न हो, जहाँ लोगों का निरन्तर गमन होता हो, जहाँ सूर्य का पर्याप्त प्रकाश हो, हल वगैरह से जोता गया हो, आदि। एकाकी विहार का निषेध कलिकाल में गण को छोड़कर एकाकी विहार करने पर कई दोषों की सम्भावनायें हैं। जैसे- दीक्षागुरु की निन्दा, श्रुत का विनाश, जिनशासन में कलंक, मूर्खता, विह्वलता, कुशीलपना, पार्श्वस्थता आदि। जो साधु संघ को 1. भ.आ., वि. 150/344/9 2. वसधीसु य उवधीसु य गामे णयरे गणे य सण्णिजणे। सव्वत्य अपडिबद्धो समासदो अणियदविहारी।। -भ.आ. 153/350 तथा देखिए, भ.आ. 142-150/324-344 3. देखें, देव-स्वरूप। 4. संजदजणस्स य जहिं फासुविहारो य सुलभवुत्तीय। -भ.आ. 152/349 तथा देखिए, मू.आ. 304-306 तृतीय अध्याय : गुरु (साधु) 107 छोड़कर एकाकी विहार करता है, वह पापश्रमण है। अंकुशरहित मतवाले हाथी की तरह वह विवेकहीन 'ढोढाचार्य' कहलाता है क्योंकि वह शिष्यपना छोड़कर जल्दी ही आचार्यपना प्राप्त करना चाहता है। ऐसा मुनि यदि उत्कृष्ट तपस्वी तथा सिंहवृत्ति वाला भी हो तो भी वह मिथ्यात्व को प्राप्त होता है। उत्कृष्ट वीतरागी एकलविहारी साधु की बात अलग है। परन्तु इस कलिकाल में नहीं। अतः संघ के साथ ही विहार करना चाहिए। विहार का मुख्य उद्देश्य है किसी एक स्थान में राग उत्पन्न न होने देना। विहार करते समय अहिंसा-पालनार्थ ईर्या-समिति का ध्यान रखना जरूरी है। आजकल के युग में एकाकी विहार को अनुपयुक्त कहा गया है, क्योंकि इसमें कई दोष हैं तथा संघ में विहार करने के कई लाभ हैं। गुरुवन्दना जैनधर्म में गुणों की पूजा होती है। अतः जो गुणों में बड़ा होता है वही वन्दनीय है। श्रावकों से श्रमण गुणों में ज्येष्ठ हैं। अतएव श्रमण होने के पूर्व जो माता-पिता पहले वन्दनीय थे अब वह श्रमण उनके द्वारा वन्दनीय हो जाता है। क्षुल्लक से ऐलक, ऐलक से आर्यिका और आर्यिका से साधु श्रेष्ठ है। साधुओं में परस्पर ज्येष्ठता दीक्षाकाल की अधिकता से मानी जाती है। अतः जो दीक्षाकाल की अपेक्षा ज्येष्ठ है वही वन्दनीय है। गुणहीन कथमपि वन्दनीय नहीं है।' वन्दना का समय दिन में तीन बार गुरु-वन्दना करनी चाहिए- प्रातः, मध्याह्न और सायंकाल। अर्थात् प्रातःकालीन क्रियाओं को करने के बाद, माध्याह्निक देववन्दना 1. मूलाचार 150-155, 961-962 2. उक्किट्ठसोहचरियं बहुपरियम्भो य गरुय भारो य। जो विरहि सच्छंदं पावं गच्छदि होदि मिच्छत्त।। -सूत्रपाहुड 9 3. आचारसार 27; मूलाचार (वृत्तिसहित) 4/149 4. णो वंदिज्ज अविरदं मादा पिदु गुरु णरिंदं अण्णतित्थं वा। देशविरदं देवं वा विरदो पासत्थणगं वा।। -मू.आ. 594 तथा देखें, प्रवचनसार 3/68; अनगारधर्मामृत 8/52 आलोयणाय करणे पडिपुच्छा पूयणे य सज्झाए। अवराहे य गुरूणं वंदणमेदेसु ठाणेसु।। - मू.आ. 601

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