Book Title: Dev Shastra Aur Guru
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad

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Page 69
________________ 121 120 देव, शास्त्र और गुरु नहीं। भ्रमवश कुछ ऐसे लोग हैं जो देव मन्दिरों में अर्हन्तदेव की उपेक्षा करके इन्हीं शासन देवी-देवताओं की पूजा बड़े भक्तिभाव से करते हैं। अज्ञानवश एवं भयवश कुछ ऐसे भी लोग हैं जो इन कुदेवों (मिथ्यादृष्टि देवों) के साथ अदेवों (कल्पित देवों - जिनका नाम जैन देवों में नहीं आता) की भी पूजा करते हैं। यह भी मिथ्यात्व है। वस्तुतः अध्यात्म-प्राप्ति हेतु अर्हन्त, सिद्ध और मुनि की पूजा की जाती है, सांसारिक समृद्धि के लिए नहीं। सांसारिक समृद्धि कृषि आदि सांसारिक व्यवसायों से करना चाहिए। अर्हन्त की पूजा से भी परिणामों की निर्मलता होने पर सांसारिक-समृद्धि अपने आप प्राप्त होती है। उनसे याचना करके निदानबंध करना उचित नहीं है। हमें यदि मांगना ही है तो अर्हन्त देवों से मांगें, अधम मिथ्यादृष्टि देवों से नहीं। महाकवि कालिदास ने ठीक ही कहा है- 'फल प्राप्त होने पर भी अधम से याचना नहीं करनी चाहिए। श्रेष्ठ (देवाधिदेव) से याचना करना ठीक है, भले ही वह निष्फल हो' (याचा मोघा वरमधिगुणे नाधमे लब्धकामा)। फिर अर्हन्त की आराधना कभी निष्फल नहीं होती। ऐसे सच्चे देवों में रागादि का सर्वथा अभाव होने से उनके उपदेशादि कैसे होंगे? ऐसी आशंका होने पर कहा गया है कि अर्हन्त तीर्थङ्करों की दिव्यध्वनि सम्पूर्ण शरीर से खिरती है। वस्तुतः वे हमारी तरह बोलते नहीं हैं फिर भी उपस्थित जीव-समुदाय उन्हें देखकर अपनी-अपनी भाषा में कर्मों के क्षयोपशम के अनुसार समझ लेते हैं। सर्वाधिक समझने की शक्ति गणधरों में होती है। गणधर उस वाणी को समझकर शब्दरूप में हमें देते हैं। वह शब्दरूप वाणी ही सच्चे शास्त्र हैं। गणधरों ने सर्वप्रथम जिन ग्रन्थों की रचना की थी वे थे आचाराङ्ग आदि अङ्गप्रविष्ट ग्रन्थ। पश्चात् परवर्ती आचार्यों ने अन्य अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया। कालदोष से दिगम्बर मान्यतानुसार आचाराङ्ग आदि अंग-ग्रन्थ लुप्त हो गए। परन्तु बारहवें दृष्टिवाद नामक अङ्ग-ग्रन्थ के पूर्वो के एकांश-ज्ञाताओं द्वारा कषायपाहुड और षट्खण्डागम ग्रन्थ लिखे गए। इन्हीं के आधार पर कालान्तर में अन्य ग्रन्थ लिखे गए। इसी परम्परा में आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार आदि ग्रन्थों को लिखकर एक अभिनव क्रान्ति पैदा की जिससे आगे की परम्परा कुन्दकुन्द आम्नाय के नाम से विख्यात हुई। पश्चात् उमास्वामी, समन्तभद्र आदि आचार्यों ने प्रामाणिक ग्रन्थों का प्रणयन किया। आज प्रश्न इस बात का है कि आचार्यों के शास्त्रों के अर्थ को सही कैसे समझा जाए? इसके लिए आचार्यों ने निश्चय-व्यवहार आदि विविध नयदृष्टियाँ चतुर्थ अध्याय : उपसंहार प्रदान की है। साथ ही यह भी बतलाया कि निरपेक्ष एक नय की दृष्टि से किया गया कथन एकान्तवाद होगा, मिथ्यावाद होगा। अतः शास्त्रों का अर्थ करते समय स्याद्वाद-सिद्धान्तानुसार ही अर्थ करना चाहिए। इसके अतिरिक्त उत्सर्ग और अपवाद मार्गों का भी ध्यान रखना चाहिए। कहाँ, किस सन्दर्भ में क्या कहा गया है? इसका ध्यान रखना बहुत आवश्यक है अन्यथा भ्रम पैदा होंगे। कभी-कभी हम अपने अज्ञान या दुराग्रह के वशीभूत होकर सच्चे शास्त्रों की गलत व्याख्या कर देते हैं जो सर्वथा-अनुचित है। अतः अर्थ करते समय मूल सिद्धान्त नहीं भूलना चाहिए। सच्चे शास्त्र वही हैं जो स्याद्वाद-सिद्धान्त के परिप्रेक्ष्य में वीतरागता का प्रतिपादन करते हैं। ऐसे सच्चे शास्त्र ही पूज्य हैं। इनसे भिन्न लौकिक अर्थों का व्याख्यान करनेवाले शास्त्र यहाँ अभिप्रेत नहीं हैं। इस समस्त चिन्तन से स्पष्ट है कि आचार्य, उपाध्याय और साधु में आचारगत तात्त्विक भेद नहीं, अपितु औपाधिक भेद हैं। ये तीनों ही श्रमण गुरु शब्द के वाच्य हैं। ये ही सच्चे गुरु हैं। अचार्य, उपाध्याय और साधु ध्यान के द्वारा जब गुणस्थान क्रम से अर्हत् अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं तो उन्हें सच्चे देव कहने लगते हैं। इस अवस्था में वे परमौदारिकशरीरधारी हो जाते हैं जिससे उन्हें भूख, प्यास आदि नहीं लगती। शस्त्रादि का उनके शरीर पर प्रभाव नहीं पड़ता। आयुःकर्म के पूर्ण होने पर वे अशरीरी सिद्ध होकर लोकाग्र में स्थित हो जाते हैं। इस तरह सशरीरी अर्हन्त और अशरीरी सिद्ध दोनों ही सच्चे देव (भगवान्) हैं। इन्हें उपचार से सच्चे गुरु भी कहा गया है क्योंकि हमारे आदर्श ये ही हैं। जिनसे हमें इनकी वाणी का साक्षात् उपदेश मिलता है वे आचार्य, उपाध्याय और साधु हमारे सच्चे गुरु हैं। सच्चे देव और सच्चे गुरु की वाणी तथा उनकी वाणी का लिखित रूप ही सच्चे शास्त्र हैं। ऐसे सच्चे देव, शास्त्र और गुरु को मेरा शत शत वन्दन।

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