________________ चतुर्थ अध्याय उपसंहार आज के इस भौतिकवादी युग में जितनी सुख-सुविधाओं का आविष्कार हो रहा है, मनुष्य उतना ही अधिक मानसिक-तनाओं से ग्रसित होता जा रहा है। पहले भी मानसिक तनाव थे और भौतिकता के प्रति आकर्षण था परन्तु उस समय धार्मिक आस्था थी जो आज प्रायः लुप्त होती जा रही है। इन मानसिक तनाओं से तथा सांसारिक दुःखों से मुक्ति पाने के लिए मनुष्य विविध माध्यमों को अपनाते रहे हैं और आज भी अपना रहे हैं। इन्हें हम निम्न चार वर्गों में विभक्त कर सकते हैं प्रथम वर्ग- सुरापान, सुन्दरी-सेवन आदि विविध प्रकार के साधनों को अपनाकर कैंसर, एड्स आदि विविध शारीरिक रोगों को आमन्त्रित कर रहा है। द्वितीय वर्ग- स्वार्थों की पूर्ति हेतु या तो कपटाचार करता है या फिर किसी तरह जीवन-नौका को चलाता है। तृतीय वर्ग- संन्यासमार्ग को अपनाकर सुख की तलाश कर रहा है। यह वर्ग दो उपभागों में विभक्त है- पापश्रमण और सच्चे श्रमण। चतुर्थ वर्ग- मध्यस्थमार्ग अपनाकर संन्यासी तो नहीं बनता परन्तु गृहस्थ जीवन में सदाचारपरायण होते हुए या तो निष्पक्ष समाजसेवा आदि करता है या फिर अपने में ही लीन रहता है। इन चार वर्गों में से तृतीय वर्ग के सच्चेश्रमण तथा चतुर्थ वर्ग वाले श्रावक (सदाचारी गृहस्थ) ऐसे हैं जो सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। श्रावकों के आदर्श गुरु हैं- सच्चे साधु (मुनि, तपस्वी)। संन्यासमार्गी साधु वर्ग दो उपभागों में विभक्त है- सच्चे-साधु और खोटेसाधु (पापश्रमण, सदोषसाधु)। खोटे साधुओं के भी दो वर्ग हैं 1. पहले वे जिनलिङ्गी साधु हैं, जो देखने में तो वीतरागी हैं और सच्चे देवों की उपासना भी करते हैं परन्तु अन्दर से मलिन हैं तथा सच्चे देवों की पूजा आदि के माध्यम से स्वार्थसिद्धि में लीन हैं। यशा की कामना अथवा स्वार्थसिद्धिहेतु ये सच्चे शास्त्रों के नाम पर मिथ्या उपदेश करते हैं। मन्त्र-तन्त्र, ज्योतिष आदि विविध क्रियाओं के माध्यम से लोगों को भ्रमित करते हैं। वस्तुतः ये साधु नहीं हैं अपितु साधुवेष में गृहस्थों पर अपना प्रभाव जमाते हैं। इनमें कुछ मठाधीश भी बन जाते हैं। चतुर्थ अध्याय : उपसंहार 117 2. दूसरे खोटे-साधु वे हैं जो जिनलिङ्ग-बाह्य हैं और गृहस्थों की तरह रहते हुए भी अन्य गृहस्थों के आश्रित बने हुए हैं। इन दोनों प्रकार के खोटेसाधुओं से सदाचारी सद्गृहस्थ (श्रावक) श्रेष्ठ हैं। ये खोटे-साधु न तो ठीक से गृहस्थाश्रम का पालन करते हैं और न संन्यासाश्रम का। इनके लिए आत्मध्यान तथा आध्यात्मिक चेतना का सुख तो कोशों दूर है। सच्चे-साधु भी दो प्रकार के हैं- 1. सूक्ष्म रागयुक्त व्यवहाराश्रित सरागसाधु (छठे गुणस्थान से लेकर दसवें गुणस्थान-वर्ती साधु) तथा 2. निश्चयनयाश्रित पूर्णवीतरागी साधु (ग्यारहवें गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थानवर्ती साधु)। वस्तुतः तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानवर्ती साधुओं को अर्हन्त (जीवन्मुक्त) देव कहा गया है। ग्यारहवाँ और बारहवाँ गुणस्थान छद्मस्थ वीतरागियों का है। अतः ग्यारहवें गुणस्थान से पूर्व की विविध-अवस्थायें व्यवहाराश्रित साधु की हैं। पूर्ण अहिंसा, सत्य, आचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह रूप पाँच महाव्रतों के धारण करने से ही सच्चा साधु होता है। ये सच्चे साधु मन्त्र-तन्त्र प्रयोग तथा सांसारिक विविधक्रियाकलापों से बहुत दूर रहते हैं। यदि साधु बनने के बाद भी इनका प्रयोग करते हैं तो कैसे वीतरागी साधु? यदि इन प्रयोगों के द्वारा जनकल्याण की भावना है तो साधुवेष की अपेक्षा श्रावकवेष धारण करके समाजसेवा आदि पुण्य कार्यों को करना चाहिए। क्योंकि आगम में इनका प्रयोग साधु को वर्जित बतलाया है। सच भी है 'वीतरागी को ऐसे सांसारिक पुण्यकार्यों से क्या प्रयोजन'? जैसे श्रावक होकर पण्डितवर्ग ज्ञान देता है उसी प्रकार एक ऐसा श्रावक-पण्डित या भट्टारक हो जो मंत्रादि प्रयोगों को सिद्ध करके धर्मप्रभावनार्थ या देशसेवार्थ कार्य करे, स्वार्थपूर्ति हेतु नहीं। इससे साधु के स्वरूप में विकृति नहीं होगी। पाँच महाव्रतों से अतिरिक्त अन्य तेईस मूलगुण, अनेक उत्तरगुण, पिच्छी कमण्डलु-धारण, विविध व्रत-नियम पालन आदि अहिंसादि पाँच महाव्रतों के संरक्षणार्थ हैं। आत्मचिन्तन में लीन होकर अपने शरीर तक से विरक्त हो जाना सच्चे साधु का लक्षण है। चूंकि जीवन्मुक्ति के पूर्व अथवा ग्यारहवें गुणस्थान के पूर्व सदाकाल आत्मचिन्तन में लीन (ध्यानमुद्रा) होना सम्भव नहीं है। अतः ध्यानेतर काल में कुछ अन्य क्रियायें भी करनी पड़ती हैं। शरीर-माध्यम से ही ध्यान-साधना हो सकती है। अतः भोजनादि में प्रवृत्ति करना अनिवार्य हो जाता है। भोजनादि में प्रवृत्ति करते समय आहार-विहार सम्बन्धी नियमों का परिपालन