Book Title: Dev Shastra Aur Guru
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad

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Page 72
________________ 126 देव, शास्त्र और गुरु शास्त्रकार-आचार्य शास्त्र समय, परिचयादि (ख) सारस्वताचार्य समन्तभद्र आप्तमीमांसा ई. सन् द्वितीय शताब्दी। नाथूराम प्रेमी छठी (देवागम स्तोत्र), शता.। इनकी समता श्रुतधराचार्यों से की जा बृहत्स्वयम्भूस्तोत्र, सकती है। प्रकाण्ड दार्शनिक और गम्भीर स्तुतिविधा चिन्तक थे। संस्कृत के प्रथम जैन कवि। (जिनशतक), आपको भष्मक-व्याधि हो गई थी जो चन्द्रप्रभु की युक्त्यनुशासन, स्तुति से शान्त हुई थी तथा एक प्रभावक घटना रत्नकरण्ड- भी घटी थी। अन्य रचनायें तत्त्वानुशासन, श्रावकाचार, प्रमाणपदार्थ, कर्मप्राभृतटीका, गन्धहस्तिमहाभाष्य। जीवसिद्धि, प्राकृतव्याकरण, आदि। विमलसूरि पउमचरियं ई. सन् चौथी शताब्दी। कुछ विद्वान् दूसरी शताब्दी भी मानते हैं। ये यापनीय संघ के थे। प्राकृत भाषा में चरित-काव्य के प्रथम जैन कवि हैं। हरिवंशचरियं भी आपकी रचना है ऐसा कुछ विद्वान् मानते हैं। सिद्धसेन सन्मतितर्क वि. सं. 625 के आसपास। समय के सम्बन्ध (सिद्धसेन (सन्मतिसूत्र या में मतभेद (१से८वीं शता.)। श्वे. और दिग. दिवाकर) सन्मति-प्रकरण), दोनों को मान्य हैं। ये सेनगण के आचार्य थे। कल्याणमन्दिरस्तोत्र समन्तभद्र से परवर्ती और पूज्यपाद से पूर्ववर्ती या समसामयिक रहे हैं। सिद्धसेन नाम के कई विद्वान् हुए हैं। श्वे. में 'दिवाकर' विशेषण मिलता है। पं. जुगलकिशोर मुख्तार ने कुछ द्वात्रिंशिकाओं एवं न्यायावतार (श्वे. में मान्य) के कर्ता सिद्धसेन को सन्मतितर्क के कर्ता से भिन्न माना है। ये प्रसिद्ध कवि और दार्शनिक (वादिगजकेसरी) थे। सन्मतिसूत्र प्राकृत भाषा में पद्यबद्ध जैन न्याय का अनूठा ग्रन्थ है। इसमें तीन काण्ड है। देवनन्दि सर्वार्थसिद्धि ई. सन् छठी शताब्दी। कवि, वैयाकरण और पूज्यपाद (तत्त्वार्थवृत्ति), दार्शनिक थे। अन्य रचनायें हैं- इष्टोपदेश, समाधितन्त्र दशभक्ति, जन्माभिषेक, सिद्धि-प्रियस्तोत्र, (समाधिशतक), जैनेन्द्रव्याकरण। प्रथम परिशिष्ट : प्रसिद्ध दि. जैन शास्त्रकार आचार्य और शास्त्र 127 शास्त्रकार-आचार्य शास्त्र समय, परिचयादि पात्रकेसरी त्रिलक्षणकदर्थन वि. सं. छठी शताब्दी उत्तरार्ध। आप कवि और (पात्रस्वामी) (अप्राप्त), दार्शनिक थे। इनका जन्म उच्च ब्राह्मण कुल पात्रकेसरीस्तोत्र में हुआ था। ये पार्श्वनाथ तीर्थङ्कर के चैत्यालय (जिनेन्द्रगुण-संस्तुति) में प्रतिदिन जाया करते थे। परमात्मप्रकाश ई. सन् छठी का उत्तरार्ध। पूज्यपाद के बाद। (योगीन्दु (अपभ्रंश), अध्यात्मवेत्ता आचार्य थे। अन्य रचनायें-- योगसार (अपभ्रंश), नौकारश्रावकाचार (अपभ्रंश), अध्यात्मतत्त्वार्थटीका (सं.), संदोह (संस्कृत), दोहापाहुड (अपभ्रंश), सुभाषिततन्त्र (सं.) अमृताशीती (सं.), निजात्माष्टक (प्राकृत)। आदि ऋषिपुत्र ऋषिपुत्रनिमित्तशास्त्र ई. सन् 4-7 शताब्दी। प्रसिद्ध ज्योतिषवेत्ता थे। मानतुङ्ग भक्तामरस्तोत्र ई. सन् ७वीं शताब्दी। श्वे. और दिग. दोनों में मान्य। भक्तामरस्तोत्र इतना प्रसिद्ध हुआ कि इसके एक-एक चरण को लेकर समस्यापूर्तिरूप कई स्तोत्र-काव्य लिखे गए। रविषेण वि.सं. 840 से पूर्व। पौराणिक चरित(पद्मपुराण) काव्यकार। जटासिंहनन्दि वराङ्गचरित सातवीं शताब्दी का उत्तरार्ध। पुराण महाकाव्यकार। दाक्षिणात्य कवि। संभवतः अन्य रचनायें भी थीं। अकलङ्कदेव लघीयत्रय (स्वोपज्ञ सातवीं शती उत्तरार्ध। समय-सम्बन्धी वृत्तिसहित), तीन मत- 1. डा. पाठक का मत (ई. न्यायविनिश्चय 778), 2. जुगलकिशोर आदि (ई. 643) (स्वोपज्ञवृत्तिसहित), और 3. पं. महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य (ई.८वीं सिद्धिविनिश्चय शती)। ये जैन न्याय के प्रकाण्ड विद्वान् थे। (सवृत्ति), शैली तार्किक एवं गूढ है परन्तु मार्मिक तत्त्वार्थवार्तिक = व्यङ्गय के प्रसङ्गों में सरस शैली है। बौद्धदर्शन राजवार्तिक (सभाष्य) में जो स्थान धर्मकीर्ति का है वही स्थान अष्टशती जैनदर्शन में अकलंक देव का है। इनकी (देवागम-विवृत्ति), ब्रह्मचर्यव्रत लेने की घटना अपूर्व थी। प्रमाणसंग्रह (सवृत्ति) पद्मचरित

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