Book Title: Dev Shastra Aur Guru
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad

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Page 60
________________ 102 देव, शास्त्र और गुरु साधुचर्या की अपेक्षा गृहस्थ-जीवन ही श्रेष्ठ है। यद्यपि सच्चे वीतरागियों के लिए स्थान का कोई महत्त्व नहीं है तथापि सामान्य वीतरागियों के लिए वैराग्यवर्धक उपयुक्त वसतिका का चयन आवश्यक है। आज के परिवेश में यदि वन में निवास सम्भव न हो तो ग्रामादि के बाह्य-स्थानों का चयन जरूर करना चाहिए, अन्यथा गृहस्थों की संगति से विविध प्रकार के आरम्भ होने लगेंगे तथा आत्मध्यान में बाधा उपस्थित होने लगेगी। वसतिका कैसी न हो? जो वसतिका ध्यान एवं अध्ययन में बाधाकारक हो; मोहोत्पादक हो; कुशील-संसक्त (शराबी, जुआड़ी, चोर, वेश्या, नृत्यशाला आदि से युक्त) हो; स्त्रियों एवं अन्य जन्तुओं आदि की बाधा हो; देवी-देवताओं के मन्दिर हों; राजमार्ग, बगीचा, जलाशय आदि सार्वजनिक स्थानों के समीप हो; तेली, कुम्हार, धोबी, नट आदि के घरों के पास हो। ये सभी स्थान तथा इसी प्रकार के अन्य स्थान ध्यान-साधना के प्रतिकूल हैं। अतएव साधु की वसतिका इनसे युक्त नहीं होनी चाहिए। इसके अलावा साधु की वसतिका पूर्वोक्त उद्गमादि छियालीस दोषों से रहित होनी चाहिए। वसतिका वस्तुतः ध्यान-साधना के अनुकूल एकान्त स्थान में होनी चाहिए। 1. इतस्ततश्च त्रस्यन्तो विभावर्या यथा मृगाः। वनाद्विशत्युपग्राम कलौ कष्टं तपस्विनः।। 197 वरं गार्हस्थ्यमेवाद्य तपसो भाविजन्मनः। श्वा स्त्रीकटाक्षलुण्टाकलोप्यवैराग्यसंपदः। -आत्मानु. 198 2. सव्वासु वट्टमाणा जं देसकालचेट्ठासु। वरकेवलादि लाहं पत्ता हु सो खवियपावा।। तो देसकालचेट्ठाणियमोज्झाणस्स णत्थि समयम्मि। जोगाण समाहाणं जह होइ तहा पयइयव्वं।। -ध. 13/5.4.26/115.20/66 देशादिनियमोऽप्येवं प्रायोवृत्तिव्यपाश्रयः। कृतात्मनां तु सर्वोऽपि देशादिया॑नसिद्धये।। - महापुराण 21/76 3. भ.आ. 228, 229, 442, 633-635, 834; मू. आ. 357, 9517 रा. वा. 9/6/16/597/34; स.सि. 1/19 4. वसतिका के दोष आहार के दोषों से मिलते-जुलते हैं। उद्गम के 20 दोष (4 दोष बढ़ गए हैं), उत्पादन के 16 दोष तथा एषणा के 10 दोष। तथा देखें, भ.आ., वि. 230/443-444 तृतीय अध्याय : गुरु (साधु) वसतिका में प्रवेश करते समय 'निसीहि' और बाहर जाते समय 'आसिहि' शब्द बोलना चाहिए। ये दोनों शब्द प्राकृत भाषा के हैं, जिनका उद्देश्य बाहर निकलते समय और अन्दर प्रवेश करते समय के संकेत हैं। साधु की साधना में जितना आहार-शुद्धि का महत्त्व है, उतना ही वसतिका का महत्त्व है। ग्रामादि के मध्य-स्थान में रहने से श्रावकों के सरागात्मक कार्यों में प्रवेश हो जाता है। प्रायः श्रावक अपने छोटे-छोटे पारिवारिक दुःखड़ों को साधु के समक्ष प्रस्तुत करने लगता है और साधु उनमें रागयुक्त होकर अथवा यश:कामना के वशीभूत होकर उनको मन्त्र-तन्त्र आदि उपायों को बतलाने लगता है। गृहस्थों के झगड़ों को सुनता है। प्रतिष्ठाचार्य के कार्य पूजा-पाठ आदि विविध आरम्भप्रधान-क्रियाओं को कराने लगता है। इसीलिए आचार्यों ने सदा साधु को विहार करते रहने का विधान किया है, जिससे वह गृहस्थों के सांसारिक प्रपञ्चों में न उलझे / जहाँ बहुत लोगों का आवागमन होता है, वहाँ ध्यान-साधना नहीं हो पाती। अतः योग्य वसतिका का चयन आवश्यक है। विहार एक स्थान पर रहने से उस स्थान से राग बढ़ता है, अतएव साधु को नित्य विहार करते रहने का विधान है। वर्षायोग (चातुर्मास) को छोड़कर साधु अधिक काल तक एक स्थान पर न रहे। इस कलिकाल में एकाकी-विहार का भी निषेध किया गया है। अतः साधु को संघ में रहकर संघ के साथ ही विहार करना चाहिए। एस स्थान पर ठहरने की सीमा तथा वर्षावास मूलाचार में सामान्यरूप से साधु को गाँव में एक रात तथा नगर में पाँच दिन तक ठहरने का विधान है।' बोध-पाहुड टीका में इस प्रकार कहा है किनगर में पाँच रात्रि और गाँव में विशेष नहीं ठहरना चाहिए। वसन्तादि छहों ऋतुओं में से प्रत्येक ऋतु में एक मासपर्यन्त ही एक स्थान में साध रहे, अधिक नहीं। 1. गामेयरादिवासी णयरे पंचाहवासिणो धीरा। सवणा फासुविहारी विवित्तएगंतवासी य।। - मू.आ. 787 2. वसिते वा प्रामनगरादौ वा स्थातव्यं, नगरे पञ्चरात्रे स्थातव्यं, ग्रामे विशेषेण न स्थातव्यम्। -बोध पा.,टी. 42/107/1 3. अनगारधर्मामृत 9/68-69

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