Book Title: Dev Shastra Aur Guru
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad

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Page 59
________________ देव, शास्त्र और गुरु आदि से लिप्त या गीले हाथ या गीले बर्तन से आहार देने पर आहार लेना) और १०.छोटित या त्यक्त (प्रतिकूल पदार्थों को नीचे गिराते हुए या जूठन गिराते हुए भोजन लेना अथवा प्रमादवश दातार गिरावे तब भी आहार लेना)। ये एषणा सम्बन्धी दोष हैं जो आहार लेते समय संभव हैं। इनका सम्बन्ध मुनि और श्रावक दोनों से है। अतः दोनों की सावधानी अपेक्षित है। संयोजनादि चार दोष ___ संयोजना, प्रमाण, इंगाल और धूमदोष। इनका वर्णन पृष्ठ सत्तानबे पर किया जा चुका है। अन्य दोष इन दोषों के अतिरिक्त कुछ अन्य दोषों का भी उल्लेख मिलता है। जैसेचौदह मलदोष-नख, रोम, जंतु, हड्डी, कण (गेहूं, चावल आदि का कण), कुण्ड (धान्यादि के सूक्ष्म अंश), पीप, चमड़ा, रुधिर, मांस, बीज, सचित्त फल, कन्द (सूरण, मूली, अदरख आदि) और मूल (पिप्पली आदि जड़)। अध:कर्म दोष गृहस्थ के आश्रित जो चक्की आदि आरम्भ रूप कर्म हैं उन्हें अधाकर्म कहते हैं। साधु उनका प्रारम्भ से ही त्यागी होता है। यदि वह इन कर्मों को करता है, . तो उसके साधुपना नहीं रहेगा। यहाँ शास्त्रोक्त दोष गिनाए हैं। यदि मूलगुणों या उत्तरगुणों में हानि हो तो इसी प्रकार देशकालानुसार अन्य दोषों की भी कल्पना कर लेनी चाहिए। वसतिका (निवासस्थान) ठहरने का स्थान वसतिका कहलाता है। जो स्थान ध्यान, अध्ययन आदि के लिए उपयुक्त हो तथा संक्लेश आदि परिणामों को उत्पन्न करने वाला न हो, वह स्थान साधु के ठहरने के लिए उपयुक्त है। वसतिका कैसी हो? "आहार प्रकरण में गिनाए गए उद्गम, उत्पादन और एषणा दोषों से रहित वसतिका होनी चाहिए। उद्गमादि आहार-सम्बन्धी दोषों का वसतिका के साथ १.णहरोमजंतुअट्ठी-कण कुंडयपूयचम्मरुहिरमंसाणि। बीयफलकंदमूला छिण्णाणि मला चद्दसा होति।। -मूला. 484 तृतीय अध्याय : गुरु (साधु) तदनुकूल अर्थ कर लेना चाहिए। जिसमें जीव-जन्तुओं का निवास न हो, बाहर से आकर जिसमें कोई प्राणी निवास न करता हो, संस्काररहित (सजावटरहित) हो, जिसमें प्रवेश और निकास सुखपूर्वक हो सकता हो, जहाँ पर्याप्त प्रकाश हो, जिसके किबाड़ और दीवारें मजबूत हों, जो गाँव या नगर के बाहर या प्रान्तभाग में हो, जहाँ बालक, वृद्ध तथा चार प्रकार के गण (मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका) आ जा सकते हों, जो दरवाजा-सहित या दरवाजा-रहित हो तथा जो या तो समभूमि या विषमभूमि-युक्त हो, ऐसी एकान्त वसतिका मुनि को उपयुक्त है।' शून्यगृहादि उपयुक्त वसतिकायें हैं शून्यघर (छोड़ा गया या वीरान घर), पर्वतगुफा, पर्वत-शिखर, वृक्षमूल, अकृत्रिम घर, श्मशान भूमि, भयानक वन, उद्यानघर, नदी का किनारा आदि ये सब उपयुक्त वसतिकायें हैं। इनके अतिरिक्त अनुद्दिष्ट देव-मन्दिर, धर्मशालायें, शिक्षाघर (पन्भार) आदि भी उपयुक्त वसतिकायें हैं। आत्मानुशासन में साधुओं द्वारा वन में निवास को छोड़कर ग्राम अथवा नगर के समीप रहने पर खेद प्रकट करते हुए कहा है- 'जिस प्रकार मृगादि रात्रि के समय सिंहादि के भय से गाँव के निकट आ जाते हैं उसी प्रकार इस कलिकाल में मुनिजन वन को छोड़कर गावों के समीप रहने लगे हैं, यह कष्टकर है। अब यदि ग्रामादि में रहने से कालान्तर में स्त्रियों के कटाक्षरूपी लुटेरों के द्वारा साधु के द्वारा ग्रहण किया गया तप (साधुचर्या) हरण कर लिया जाए तो 1. उग्गम-उप्पादण-एसणाविसुद्धाए अकिरियाए हु। वसइ असंसत्ताए णिप्पाहुडियाए सेज्जाए।। सुहणिक्खवण पवेसुणधणाओ अवियड अणंध याराओ।। 637 घणकुडे सकवाडे गामबहिं बालबुड्ढगणजोग्गे।। 638 वियडाए अवियडाए समविसमाए बहिं च अंतो वा। -भ,आ. 229 2. गिरिकंदरं मसाणं सुण्णागारं च रुक्खमूलं वा। ठाणं विरागबहुलं धीरो भिक्खू णिसेवेऊ।। -मू आ. 952 सुण्णघरगिरिगुहारुक्खमूल..... विचित्ताईं। - भ.आ. 231 उज्जाणघरे गिरिकंदरे गुहाए व सुण्णहरे। -भ.आ. 638 तथा देखिए, बोध पा. 42, स.सि. 9/19; ध. 13/5.4.26/5888 3. आगंतुगार देवकुले.....। - भ. आ. 231, 639

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