________________ देव, शास्त्र और गुरु (पके भोजन को निकालकर दूसरे बर्तन में रख देना), 6. बलिदोष (यक्ष आदि के निमित्त बनाये गए भोजन में से बचे हुए अन्न को देना), 7. प्राभूत या प्रावर्तित (काल की हानि या वृद्धि करके आहार देना), 8. प्रादुष्कार (आहारार्थ आने पर वर्तन वगैरह साफ करना, दीपक जलाना, लीपना-पोतना), 9. क्रीत (खरीदकर आहार देना), 10, प्रामृष्य या ऋण (उधार लेकर आहार देना), 11. परिवर्त (भोजन दूसरे से बदलकर देना), 12. अभिघट (पंक्तिबद्ध सात घर के अतिरिक्त घर से लाकर देना), 13. उभिन्न (बन्द पात्रों का ढक्कन खोलकर देना), 14. मालारोहण (सीढ़ी आदि से घर के ऊपरी भाग पर चढ़कर वहाँ से अटारी आदि पर रखी वस्तु लाकर देना), 15. आछेद्य (चोर आदि को साधु का भय दिखाकर उनसे छीनी गई वस्तु देना), और 16. अनीशार्थ (अनिच्छुक दातारों से दिया गया आहार। इसमें सभी लोग दान के इच्छुक नहीं होते)। यद्यपि ये दोष दाता से सम्बन्धित हैं, परन्तु साधु को इस विषय में सावधानी वर्तनी चाहिए। यदि इन दोषों को दाता के मत्थे डालकर उपेक्षा करेगा तो साधु को दोष लगेगा। क्रीत, मालारोहण आदि दोष इसलिए गिनाए गए हैं कि गृहस्थ के ऊपर भार न पड़े तथा वह अनावश्यक कष्ट न उठावे। उत्पादन के सोलह दोष १.धात्री (धात्री कर्म-स्नानादि सेवा-कर्म का उपदेश देकर आहार प्राप्त करना), 2. दूत (सन्देश भेजने रूप दौत्य-कर्म से आहार प्राप्त करना), 3. निमित्त (शुभाशुभ निमित्तों को बतलाकर आहार लेना), 4. आजीव (जाति, तृतीय अध्याय : गुरु (साधु) तप, शिल्प आदि क्रियाओं को बताकर तथा अपने को श्रेष्ठ बताकर आहार प्राप्त करना), 5. वनीपक (दाता के अनुकूल वचनों को कहकर आहार प्राप्त करना), 6. चिकित्सा (चिकित्साविज्ञान बताकर आहार प्राप्त करना), 7-10 क्रोधमान-माया-लोभ ('तुम क्रोधी हो', 'तुम घमण्डी हों' आदि कहकर आहार देने हेतु तैयार करना, 11-12 पूर्व-पश्चात् संस्तुति (दान के पूर्व अथवा बाद में दाता की प्रशंसादि करना, जिससे अच्छा आहार मिले), 13-14. विद्या-मंत्र (विद्याओं और मन्त्रों के प्रयोग बतलाना, जिससे आहार अच्छा मिले), 15. चूर्ण (अंजन-चूर्ण आदि बतलाकर आहार प्राप्त करना) और 16. मूलकर्म (वियोगी स्त्री-पुरुषों को मिलाना, अवशों को वशीभूत करना आदि क्रियाओं को करके आहार प्राप्त करना)। ये दोष मुनि से सम्बन्धित हैं। अतः मुनि को ये कार्य आहार के निमित्त नहीं करना चाहिए। यदि मुनि इन दोषों की उपेक्षा करता है तो वह एक प्रकार से धात्री आदि कार्यों को करके आजीविका करने वाला गृहस्थसा बन जाता है। एषणा के दस दोष 1. शंकित (आहार लेने योग्य है या नहीं, ऐसी शंका होना), 2. प्रक्षित (चिकनाई आदि से युक्त हाथ आदि से दिया गया आहार। अतः हाथ ठीक से धोकर पोंछ लेना चाहिए), 3. निक्षिप्त (सचित्त एवं अप्रासक वस्तुओं पर रखा आहार), 4. पिहित (अप्रासुक वस्तु से ढके हुए को खोलकर दिया गया आहार), 5. संव्यवहरण (लेन-देन शीघ्रता से करना),६. दायक (बालक का शृङ्गार आदि कर रही स्त्री, मद्यपायी, रोगी, मुरदे को जलाकर आया सूतक वाला व्यक्ति, नपुंसक, पिशाचग्रस्त,, नग्न, मलमूत्र करके आया हुआ, मूछीग्रस्त, वमन करके आया व्यक्ति, रुधिरसहित, दासी, वेश्या, श्रमणी, तेल मालिस करने वाली, अतिबाला, अतिवृद्धा, जूठे मुंह, पाँच माह या उससे अधिक के गर्भ से युक्त स्त्री, अन्धी, सहारे से बैठी हुई, ऊंची जगह पर बैठी हुई, नीची जगह पर बैठी हुई, अग्निकार्य में संलग्न, लीपने-पोतने आदि में संलग्न, दूध-पीते बच्चे को छोड़कर आई स्त्री; इत्यादि स्त्री-पुरुषों से आहार लेना), 7. उन्मिन (पृथिवी, जल, हरित, बीज एवं त्रस जीवों से मिश्रित अथवा गर्म-उष्ण पदार्थों से मिश्रित आहार), 8. अपरिणत (पूर्ण पका भोजन हो, अधपका नहीं। जहाँ पानी की कमी है वहाँ तिल का धोवन, तण्डुलोदक आदि), 9. लिप्त (गेरु, हरिताल गया भोजन-दानशालाओं का भोजन। दानशालाओं का भोजन इसलिए ग्राह्य नहीं है क्योंकि वहाँ न तो शुद्धता रहती हैं और न आदरभाव / प्रथम तीन उद्दिष्ट प्रकारों का भोजन ग्रहण दूसरों के अधिकार को छीनना है। अतः उसे भी नहीं लेना चाहिए। अब यदि उद्दिष्टत्याग का अर्थ 'आरम्भत्यागी साधु को उद्देश्य करके बनाया गया भोजन त्याज्य है' ऐसा अर्थ करेंगे तो या तो साधु को वर्तमान काल में भोजन ही नहीं मिलेगा या फिर अशुद्ध मिलेगा। आज दिगम्बर जैन साधु के अनुकूल भोजन गृहस्थ के घर प्रायः नहीं बनता है। निमन्त्रण साधु स्वीकार नहीं कर सकता है। गृहस्थ अतिथि-संविभाग व्रत पालन करता है। वह योग्य पात्र को दान देने हेतु शुद्ध भोजन बनाता है, अतिथि मुनि के न आने पर गृहस्थ स्वयं उस भोजन को खाता है। यदि उद्दिष्टत्याग का अर्थ सर्वथा आरम्भत्याग अर्थ करेंगे तो साधु को दवा कैसे दी जायेगी? अन्यथा श्रावक को भी दवा खानी पड़ेगी। अतः उद्दिष्टत्याग का अर्थ है जो किसी विशेष जीव के उद्देश्य से न बना हो तथा नवकोटिविशुद्ध हो।