Book Title: Dev Shastra Aur Guru
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad

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Page 57
________________ 97 देव, शास्त्र और गुरु आहार के अन्तराय आहार-सम्बन्धी कुछ अन्तराय निम्न हैं, जिनके उपस्थित होने पर साधु को आहार त्याग देना चाहिए 1. कौआ आदि पक्षी वीट कर दे, 2. विष्ठा आदि मल पैर में लग जाए, 3. वमन हो जाए, 4. कोई रोक दे, 5. रक्तस्राव दिखलाई दे, 6. अश्रुपात हो, 7. खुजली आदि होने पर जंघा के निचले भाग का स्पर्श हो जाए, 8. घुटनों के ऊपर के अवयवों का स्पर्श हो जाए, 9. दरवाजा इतना छोटा हो कि नाभि से नीचे झुकना पड़े, १०.त्यागी हई वस्तु का भक्षण हो जाए, 11. कोई किसी जीव का वध कर देवे, 12. कौआ आदि हाथ से आहार छीन ले, 13. पाणिपात्र से ग्रास गिर जाए, 14. कोई जन्तु पाणिपात्र में स्वयं गिरकर मर जाए, 15. मांस, मद्य आदि दिख जाए, 16. उपसर्ग आ जाए, 17. दोनों पैरों के मध्य से कोई पञ्चेन्द्रिय जीव निकल जाए, 18. दाता के हाथ से कोई वर्तन गिर जाए, 19. मल विसर्जित हो जाए, 20. मूत्र विसर्जित हो जाए, 21. चाण्डालादि के घर में प्रवेश हो जाए, 22. मूर्छा आ जाए, 23. भोजन करते-करते बैठ जाए, 24. कुत्ता, बिल्ली आदि काट ले, 25 सिद्ध-भक्ति कर लेने के बाद हाथ से भूमि का स्पर्श हो जाए, 26. आहार करते समय थूकखकार आदि निकल आए, 27. पेट से कीड़े निकल पड़े, 28. दाता के द्वारा दिए बिना ही कोई वस्तु ले लेवे, 29. तलवार का प्रहार होवे, 30. ग्रामादि में आग लग जाए, 31. भूमि पर पड़ी हुई वस्तु को पैर से उठाकर ले लेवे, 32. गृहस्थ की किसी वस्तु को मुनि अपने हाथ में सम्हाले रखे। इसी प्रकार की अन्य परिस्थितियों के आने पर साधु को आहार का त्याग कर देना चाहिए। तृतीय अध्याय : गुरु (साधु) 1. उद्गम दोष- यह गृहस्थ-दाता सम्बन्धी दोष है। औद्देशिक आदि के भेद से यह सोलह प्रकार का है। 2. उत्पादन दोष-यह मुनि के अभिप्राय आदि से सम्बन्धित दोष हैं। धात्री आदि के भेद से यह सोलह प्रकार का है। 3. एषणा (अशन) दोष- यह परोसने वाले गृहस्थ तथा आहार लेने वाले साधु दोनों से सम्बन्धित है। इसमें शुद्धा-शुद्धि का विचार न करना ही दोष का कारण है। यह दस प्रकार का है। 4. संयोजना दोष- शीत-उष्ण अथवा स्निग्ध-रुक्ष पदार्थों को मिलाना। 5. प्रमाण दोष- प्रमाण से अधिक भोजन करना। 6. इंगाल या अंगार दोष- स्वादिष्ट भोजन में लालच होना। 7. धूमदोष- नीरस-कटु भोजन में अरुचि होना। 8. कारणदोष- आहार-ग्रहण करने के कारणों के विरुद्ध कारणों के होने पर भी आहार लेना। इस तरह उद्गम के सोलह, उत्पादन के सोलह, एषणा के दस तथा संयोजनादि चार दोषों को मिलाने से आहारसम्बन्धी छियालीस दोष होते हैं। यहाँ कारण दोष को अलग से नहीं जोड़ा गया है। क्योंकि आहार-ग्रहण के कारण होने पर ही साधु आहार लेता है और आहार लेते समय जिन छियालीस दोषों को बचाना है वे ही यहाँ लिए गए हैं। उद्गम के सोलह दोष 1. औद्देशिक' (उद्देश्य करके बनाया गया भोजन), 2. अध्यधि (पकते भोजन में थोड़ा बढ़ा देना अथवा किसी बहाने साधु को रोक रखना, जिससे भोजन तैयार हो जाए), 3. पूतिकर्म (अप्रासुक द्रव्य से मिश्रित प्रासुक द्रव्य), 4. मिश्र (मिथ्या साधुओं के साथ संयत साधुओं को देना), 5. स्थापित दोष 1. इस दोष के सम्बन्ध में बहुत भ्रम है। मेरी इस दोष के सम्बन्ध में पं. जगन्मोहन लाल जी से वार्ता हुई थी, जिसका सार इस प्रकार है- प्रकृत में उद्दिष्ट के चार अर्थ संभव हैं१. जैन साधु-विशेष के लिए बनाया गया भोजन, 2. जैनेतर साधु के लिए बनाया गया भोजन, 3. दीन-दुःखियों के लिए बनाया गया भोजन और 4. जिस किसी के लिए बनाया छियालीस दोषों से रहित आहार की ग्राह्यता ___ साधु को ऐसा आहार लेना चाहिए जो उद्गमादि छियालीस दोषों से रहित हो। इन छियालीस दोषों को मुख्यतः आठ दोषों में समाहित किया गया है। जैसे१. मूलाचार 495-500 2. उग्गम उप्पादन एसणं च संजोजणं पमाणं च। इंगाल धूमकारण अट्ठविहा पिंडसुद्धी दु।। - मू.आ. 421 तथा देखिए, मूलाचार ४२२-४७७;भ, आ., वि. 421/613/9

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