Book Title: Dev Shastra Aur Guru
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad

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Page 55
________________ तृतीय अध्याय : गुरु (साधु) खड़े', अञ्जलि बांधकर, पाणिपात्र में२, भिक्षाचर्या से यथालब्ध नवकोटिविशुद्ध आहार को गृहस्थ के ही घर पर ग्रहण करते हैं। वह आहार छियालीस दोषों से रहित', शुद्ध , पुष्टिहीन, रसहीन तथा नवधाभक्तिपूर्वक दिया गया होना चाहिए। साधु को आहार लेते समय लोलुपता और स्वच्छन्दता का प्रदर्शन न करते हुए आगम प्रमाणानुसार ही भूख से कम खाना चाहिए।" आहार का प्रमाण- सामान्य रूप से पुरुष के आहार का प्रमाण बत्तीस ग्रास है और स्त्रियों का अट्ठाईस पास है। 19 इतने से उनका पेट भर जाता है। साधु के सन्दर्भ में कहा है कि उसे पेट के चार भागों में से दो भाग अन्नादि से तथा एक भाग जल से भरना चाहिए। शेष एक भाग वायु संचारणार्थ खाली रखना चाहिए।१२ 92 देव, शास्त्र और गुरु जैसे 'गाड़ी का धुरा ठीक से काम करें' एतदर्थ उसमें थोड़ी सी चिकनाई लगाई जाती है वैसे ही प्राणों के धारण के निमित्त मुनि अल्प आहार लेते हैं। प्राणों का धारण करना धर्म-पालन के लिए है और धर्म-पालन मोक्ष-प्राप्ति में निमित्त है।' अर्थात् 'शरीर धर्मानुष्ठान का साधन हैं' ऐसा जानकर मुनि शरीर से धर्म-साधने के लिए प्राणों के रक्षार्थ आहार ग्रहण करते हैं। शरीर से धर्मसाधना के न होने पर सर्वविध आहार-त्यागरूप सल्लेखना ग्रहण करते हैं। 3. मात्र शरीर-उपचारार्थ औषध आदि की इच्छा नहीं- ज्वरादि के उत्पन्न होने पर मुनि पीड़ा को सहन करते हैं, परन्तु शरीर के इलाज की इच्छा नहीं करते। यदि श्रावक निरवद्य (शुद्ध) औषधि देवे तो आहार के समय ले सकते हैं परन्तु न तो किसी से मांग सकते हैं और न प्राप्ति की इच्छा कर सकते हैं। आहार-त्याग के छः कारण आतङ्क (आकस्मिक असाध्य रोग आदि), उपसर्ग, ब्रह्मचर्यरक्षा, प्राणिदया, तप और सल्लेखना (शरीर-परित्याग)- इन छ: कारणों अथवा इनमें से किसी एक कारण के उपस्थित होने पर साधु को आहार का परित्याग कर देना चाहिए।' आहार-विधि आदि दिगम्बर जैन साधु इन्द्रियों को वश में रखने के लिए, संयम पालन करने के लिए दिन के मध्याह्न में एक बार', संकेतादि बिना किए, मौनपूर्वक', खड़े१. अक्खोमक्खणमेत्तं भुंजंति मुणी पाणधारणणिमित्तं। पाणं धम्मणिमित्तं धम्म पि चरंति मोक्खहूँ।। - मू.आ.८१७ तथा देखिए, र. सा. 116, पद्म पु. 4/97; अन. ध. 4/140; 7/9 2. उप्पण्णम्मि य वाही सिरवेयण कुक्खिवेयणं चेव। अधियासिति सुधिदिया कायतिगिछं ण इच्छति।। -मू आ. 841 3. आईके उवसग्गे तिरक्खणे बंभचेरगुत्तीओ। पाणिदयातवहेक सरीरपरिहार वोच्छेदो।। - मू. आ. 480 4. उदयत्थमणे काले णालीतियवज्जियम्हि मज्झम्हि। एकम्हि दुअ तिए वा मुत्तकालेयभत्तं तु।। -मू. आ. 35 एकं खलु तं भत्तं अप्पडिपुण्णोदरं जधालद्ध। चरण भिक्खेण दिवा ण रसवेक्खं ण मधु मंसं।। -प्र. सा. 229 ण वि ते अभित्थुणंति य पिंडत्थं ण वि य किंचि जायंति। मोणव्वदेण मुणिणो चरंति भिक्खं अभासंता।। - मू.आ. 817 भिक्षां परगृहे लब्धा निदोषा मौनमास्थिताः। - पद्मपुराण 4/97 1. अंजलिपुडेण ठिच्चा कुड्डादि विवज्जणेण समपार्य। पडिसुद्धे भूमितिए असणं ठिदि भोयणं णाम।। -मू. आ. 34 णवकोडीपरिसुद्धं दसदोसविवज्जियं मलविसुद्ध। भुंजंति पाणिपत्ते परेण दत्तं परघरम्मि।। - मू.आ. 813 2. वही। 3. देखें, पृ. 92, टि. 5 4. वही। 5. मूलाचार 421, 482, 483,812 6. वसुनंदि श्रावकाचार 231, लाटी संहिता 2/19-32 7. मूलाचार 481, 814, तथा देखें, पृ. 92, टि. 4 8. मूलाचार 482 9. धावदि पिंडणिमित्तं कलह काऊण भंजदे पिंड। अवरूपरूई संतो जिणमग्गि ण होई सो समणो।। -लिङ्गपाहुड 13 10. बत्तीस किर कवला आहारो कुक्खिपूरणो होई। पुरिसस्स महिलियाए अट्ठावीसं हवे कवला।। -भ.आ. 211 अद्धमसणस्स सव्विजणस्स उदरस्स तदियमदयेण।। वाऊ संचरणटुं चउत्थमवसेसये भिक्खू।। - मू.आ.४९१ 11. वही। 12. वही। /

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