Book Title: Dev Shastra Aur Guru
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad

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Page 54
________________ 90 देव, शास्त्र और गुरु बढ़ जाएँ परन्तु उपशम-श्रेणी वालों को तो कम से कम सातवें गुणस्थान तक अवश्य नीचे उतरना है। इस तरह मुनि की ध्यानावस्था को छोड़कर शेषकाल में मुनि छठे-सातवें गुणस्थान से ऊपर नहीं रहते हैं। इस समय इसे कुछ क्रियायें अवश्य करनी पड़ती हैं जिनमें वह पाँचों समितियों का ध्यान रखता है। ये क्रियायें शुभोपयोगी की होती हैं। अतः शुभोपयोगी मुनि पूज्य नहीं हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता है। देवसंज्ञक अर्हन्तावस्था के पूर्व जो आचार्य- उपाध्याय-साधु रूप श्रमणावस्था (गुरु-अवस्था) है उसमें व्यवहार और निश्चय दोनों नयों से शुभोपयोगी और शुद्धोपयोगी श्रमणावस्थाओं का समन्वय जरूरी है। - आहार आहार का अर्थ और उसके भेद। सामान्य भाषा में आहार शब्द का अर्थ है 'मुख से ग्रहण किए जाने वाला 'भोजन'। तीन प्रकार के स्थूल शरीरों (औदारिक, वैक्रियक और आहारक) और छह प्रकार की पर्याप्तियों (आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन) के योग्य पुद्गलों (पुद्गलवर्गणाओं) के ग्रहण करने को पारिभाषिक शब्दों में आहार कहते हैं। इस प्रकार का आहार केवल मुख से ही ग्रहण नहीं किया जाता, अपितु शरीर, रोमकूप आदि से भी गृहीत होता है। जैनागमों में विविध प्रकार से आहार के भेदों का उल्लेख मिलता है। जैसे-१. कर्माहारादि, २.खाद्यादि, 3. कांजी आदि और 4. पानकादि। इनमें से कर्माहारादि का विवरण निम्न प्रकार है 1. कर्माहार-जीव के शुभ-अशुभ परिणामों से प्रतिक्षण स्वभावतः कर्मवर्गणाओं (पुद्गल-परमाणुओं) का ग्रहण करना कर्माहार है। यह सभी संसारी जीवों में पाया जाता है। 2. नोकर्माहार- शरीर की स्थिति में हेतुभूत वायुमण्डल से प्रतिक्षण स्वतः प्राप्त वर्गणाओं का ग्रहण करना नोकर्माहार है। यह आहार 'कवली' के विशेष रूप से बतलाया गया है। यह आहार औदारिक, वैक्रियिक और आहारक शरीर वालों के होता है। 1. त्रायाणां शरीराणां षण्णां पर्याप्तीनां योग्यपुद्गलग्रहणमाहारः। - स.सि. 2/30 २.ध. 1/1.1.176/409; मू. आ. 676; अन. प. 7.13; लाटी सं. 2.16-17 3. समय समय प्रत्यनन्ताः परमाणवोऽनन्यजनासाधारणाः। शरीरस्थितिहेतवः पुण्यरूपाः शरीरे सम्बन्धं यान्ति नोकर्मरूपा अर्हत् उच्यते, न वितरमनुष्यवद् भगवति कवलाहारो भवति। -बोधपाहुड 34 तृतीय अध्याय : गुरु (साधु) 3. कवलाहार- जो शरीर-पोषण हेतु बाहर की वस्तु मुख से ग्रहण की जाए वह कवलाहार है। अर्थात् लोकप्रसिद्ध खाद्य, पेय आदि वस्तुओं का मुख द्वारा ग्रहण करना कवलाहार है। 'केवली' के कवलाहार नहीं बतलाया गया है। शेष मुनि कवलाहार लेते हैं। 4. लेप्याहार-तेल-मर्दन, उबटन आदि करना। यह मुनि को वर्जित है। 5. ओजस् आहार (ऊष्माहार)- पक्षियों के द्वारा अपने अण्डों को सेना ओजस् आहार है। 6. मानसाहार- मन में चिन्तन करने मात्र से आहार कि पूर्ति हो जाना मानसाहार है। यह देवों का होता है, वे कवलाहार नहीं करते। इन आहारों में से यहाँ साधु-प्रकरण में केवल 'कवलाहार' का विशेषरूप से विचार किया गया है क्योंकि कवलाहार के बिना लोक व्यवहार में जीवन धारण करना सम्भव नहीं है। अतः साधु आहार क्यों करे? कैसा करे? कितना करे? कब करे? आदि का विचार यहाँ प्रस्तुत है। आहार-ग्रहण के प्रयोजन निम्न कारणों से साधु आहार लेवे १.शरीर-पुष्टि आदि के लिए नहीं, अपितु संयमादि-पालनार्थ-बलप्राप्ति के लिए, आयु बढ़ाने के लिए, स्वाद के लिए, शरीरपुष्टि के लिए, शरीर के तेज को बढ़ाने के लिए साधु आहार (भोजन) नहीं लेते, अपितु ज्ञान-प्राप्ति के लिए, संयम पालने के लिए तथा ध्यान लगाने के लिए लेते हैं। २.धर्मसाधन-हेतु, शरीर की क्षुधा-शान्ति तथा प्राणादि-धारणार्थभूख की बाधा उपशमन करने के लिए, संयम की सिद्धि के लिए, स्व-पर की वैयावृत्ति के लिए, आपत्तियों का प्रतिकार करने के लिए, प्राणों की स्थिति बनाये रखने के लिए, षडावश्यक-ध्यान-अध्ययन आदि को निर्विघ्न चलाते रहने के लिए मुनि को आहार लेना चाहिए। 1. वही। 2. ण बलाउसाउअटुं ण सरीरस्सुवचयटुं तेजहूँ। णाणटुं संजमटुं झाणटुं चेव भुंजेज्जो। -मू.आ. 481 तथा देखिए, रयणसार 113 3. क्षुच्छमं संयम स्वान्यवैयावृत्यसुस्थितम्। वाञ्छनावश्यकं ज्ञानध्यानादींश्चाहरेन्मुनिः।। -अन. ध. 5/61 वेयणवेज्जावच्चे किरियाठाणे य संयमट्ठाए। तध पाणधम्मचिंता कुज्जा एदेहिं आहारं / / -मू.आ. 479

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