Book Title: Dev Shastra Aur Guru
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad

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Page 52
________________ 87 / देव, शास्त्र और गुरु 1. जिसे शत्रु और बन्धुवर्ग, सुख और दुःख, प्रशंसा और निन्दा, वेला और सुवर्ण, जीवन और मरण सभी में समता है, वही श्रमण है।। 2. जो निष्परिग्रही एवं निरारम्भ है, भिक्षाचर्या में शुद्ध-भाव वाला है, एकाकी ध्यान में लीन है तथा सभी गुणों से पूर्ण है, वही साधु है। 3. जो अनन्त ज्ञानादिस्वरूप शुद्धात्मा की साधना करता है वही साधु है।' 4. जो निजात्मा को ही रत्नत्रयरूप से देखता है वही निश्चय से साधु है।। शुद्धोपयोगी साधु की प्रधानता शुद्धोपयोगी साधु की प्रधानता के सम्बन्ध में अनेक प्रमाण शास्त्रों में मिलते हैं१. बगुले की चेष्टा के समान अन्तरङ्ग में कषायों से मलिन साधु की बाह्यक्रियायें किस काम की? वह तो घोडे की लीद के समान ऊपर से चिकनी और अन्दर से दुर्गन्धयुक्त है। 2. वनवास, कायक्लेशादि तप, विविध उपवास, अध्ययन, मौन आदि क्रियाएँ-- ये सब समताभाव से रहित साधु के किसी काम की नहीं हैं।' 3. सम्यग्दर्शन के बिना व्रत, मूलगुण, परीषहजय आदि उत्तरगुण, चारित्र, षडावश्यक,ध्यान, अध्ययन आदि सब संसार के कारण हैं।' तृतीय अध्याय : गुरु (साधु) 4. अकषायपना ही चारित्र है। कषाय के वशीभूत होने वाला असंयत है। जब कषायरहित है, तभी संयत है। 5. सब धर्मों का पूर्णरूप से पालन करता हुआ भी यदि आत्मा की इच्छा नहीं करता तो वह सिद्धि को प्राप्त नहीं होता, अपितु संसार में ही भ्रमण करता है। 6. इन्द्रिय-सुखों के प्रति व्याकुल द्रव्यलिङ्गी श्रमण भववृक्ष का छेदन नहीं करते, अपितु भावश्रमण ही ध्यानकुठार से भववृक्ष छेदते हैं।' 7. बाह्यपरिग्रह से रहित होने पर भी जो मिथ्यात्वभाव से मुक्त नहीं है वह निर्ग्रन्थ लिङ्ग धारण करके भी परिग्रही है। उसके कायोत्सर्ग, मौन आदि कुछ नहीं होते। ऐसे द्रव्यलिङ्गी श्रमण आगमज्ञ होकर भी श्रमणाभास . 1. समसत्तुबंधुवग्गो समसुहदुक्खो पसंसणिदसमो। समलोठुकंचणो पुण जीवितमरणे समो समणो।। - प्र.सा. 241 २.णिस्संगो णिरारंभो भिक्खाचरियाए सुद्धभावो य। एगागी झाणरदो सत्वगुणड्ढो हवे समणो।। -मू.आ. 1002 3. अनन्तज्ञानादिशुद्धात्मस्वरूपं साधयन्तीति साधवः। -ध. 1/1.1.1/51/1 4. स्वद्रव्यं श्रद्धानस्तु बुध्यमानस्तदेव हि। तदेवोपेक्षमाणश्च निश्चयान्मुनिसत्तमः।। -त. सा. 9/6 5. देखें, पृ. 80, टि.नं. 2 6. किं काहदि वनवासो कायकलेसो विचित्तउववासो। अज्झयणमौणपहुदी समदारहियस्स समणस्स।। -नि.सा. 124 7. वयगुणसीलपरीसयजयं च चरियं च तव सडावसयं। झाणज्झयणं सव्वं सम्मविणा जाण भाव-वीय।। -र.सार 127 क्या गृहस्थ ध्यानी (भावसाधु) हो सकता है? निश्चय साधु का स्वरूप जानने के बाद शंका होती है कि क्या गृहस्थी में रहकर भी संयम, ध्यान आदि साधा जा सकता है? यदि सम्भव है तो द्रव्यलिङ्ग (नग्नरूप) धारण करने की क्या आवश्यकता है? हम कह सकते हैं 'हम तो भाव से शुद्ध हैं, बाह्यक्रियाओं से क्या? परन्तु यह कथन सर्वथा अनुचित है, क्योंकि भावशुद्धि के होने पर बाह्य-शुद्धि आए बिना नहीं रह सकती है। अतः अचार्यों ने बाह्यलिङ्गी और अन्तरङ्गलिङ्गी का समन्वय बतलाया है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं, विपरीत किनारे नहीं हैं। आचार्यों ने गृहस्थ के परमध्यान का निषेध किया है, क्योकि गृहस्थी की उलझनों में रहने से वह निर्विकल्पी नहीं बन सकता है। कहा है१. अकसायं तु चारित्तं कसायवसिओ असंजदो होदि। उवसमदि जम्हि काले तत्काले संजदो होदि। -मू.आ. 984 2. अह पुण अप्पा णिच्छदि धम्माइ करेइ णिरवसेसाई।। तह वि ण पावदि सिद्धि संसारस्थो पुण भणिदो।। -सूत्र पा. 15 ३.जे के वि दव्वसमणा इंदियसहआउला ण छिदंति। छिदंति भावसमणा झाणकुठारेहिं भवरुक्ख।। -भाव पा. 122 4. बहिरंगसंगविमुक्को णा वि मुक्को मिच्छभाव णिग्गंथो। किं तस्स ठाणमउणं ण वि जाणदि अप्पसम्मभाव।। - मोक्षपाहुड 97 5. आगमज्ञोऽपि...श्रमणाभासो भवति। -प्र.सा., त.प्र. 264

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