Book Title: Dev Shastra Aur Guru
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad

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Page 50
________________ देव, शास्त्र और गुरु सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि की पहचान गुणस्थान प्रतिक्षण बदलता रहता है। हम सर्वज्ञ न होने से किसी के आभ्यन्तर परिणामों को नहीं समझ सकते। बाह्य-व्यवहार से ही सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि का निर्णय करते हैं। निश्चयनय से इसका निर्णय करना संभव नहीं है क्योंकि जितना भी कथन (वचन-व्यवहार) है वह सब व्यवहारपरक ही है। वास्तविक ज्ञान तो सर्वज्ञ को ही संभव है। परिणामों की विशेषता के कारण ही भिन्नदशपूर्वी (10 पूर्वो के ज्ञाता होने पर सिद्ध हुई विद्याओं के लोभ को प्राप्त साधु) भी मिथ्यादृष्टि हैं, क्योंकि उनका महाव्रत भंग हो जाता है और उनमें जिनत्व घटित नहीं होता। अभिन्नदशपूर्वी (जो विद्याओं में मोहित नहीं होते) सम्यदृष्टि हैं। उनके महत्त्व को बतलाने के लिए आगम में चौदहपूर्वी (अप्रतिपाती = पुनः मिथ्यात्व को न प्राप्त होने वाला) के पूर्व अभिन्नदशपूर्वी साधुओं को नमस्कार करने का विधान किया गया है। इसका कारण णमोकारमंत्र की तरह सिद्धों से पूर्व अर्हन्तों के नमस्कार जैसा है। विद्याओं की सिद्धि होने पर उनके आकर्षण से जो मोहित हो जाते हैं वे सम्यग्दृष्टि से मिथ्यादृष्टि हो जाते हैं और जो मोहित नहीं होते वे निरन्तर मुक्ति की ओर अग्रसर होते रहते हैं। अपेक्षा-भेद से सच्चे साधुओं के भेद सच्चे साधुओं (सम्यग्दृष्टि साधुओं) में वस्तुतः कोई भेद न होने पर भी उनके उपयोग आदि अपेक्षाओं से कई प्रकार के भेद किए गए हैं। जैसे (क) उपयोग की अपेक्षा दो भेद- ज्ञान-दर्शनरूप उपयोग की अपेक्षा दो भेद हैं- 1. शुद्धोपयोगी (पूर्ण वीतरागी, निरास्रवी) तथा 2. शुभोपयोगी (सरागी, सास्रवी)। शुभोपयोगी साधु अर्हन्त आदि में भक्ति से युक्त होता है 1. तत्थ दसपुल्विणो भिण्णाभिण्णभेएण दुविहा होति।... एवं दुक्काणं सव्वविज्जाणं जो लोभं गच्छदि सो भिषणदसपुव्वी। जो ण तासु लोभं करेदि कम्मखयत्थी होति सो अभिण्णदसपुची णाम। ण च तेसिं (भिण्णदसपुव्वीणं) जिणत्तमस्थि भग्गमहव्वएसु जिणताणुववत्तीदो। -ध. 9/4.1. 12/69/5, 70/1 2. चोद्दसपुव्वहराणं णमोक्कारो किण्ण कदो? ण, जिणवयणपच्चयट्ठाणपदुप्पायणदुवारेण... पुव्वं दसपुव्वीणं णमोक्कारो कुदो -ध. 9/4.1. 12/70/3 चोद्दसपुव्वहरो मिच्छत्तं ण गच्छदि। -ध. 9/4.1.13/79/9 3. समणा सुद्धवजुत्ता सुहोवजुत्तो ये होति समयम्हि। तेसु वि सुद्धवजुत्ता अणासवा सासवा सेसा।। -प्र.सा. 3.45 तृतीय अध्याय : गुरु (साधु) तथा वृद्धादि साधुओं की वैयावृत्य आदि के निमित्त शुभ-भावों से लौकिक जनों से वार्तालाप कर सकता है। छठे से दशवें गुणस्थानवर्ती साधु सराग चारित्र का धारक होता है। शुद्धोपयोगी साधु आत्मलीन होता है। वह यथाख्यात चारित्र का धारक होता है। यह स्थिति दसवें गुणस्थान के बाद आती है। (ख) विहार की अपेक्षा दो भेद- जिसने जीवादि तत्त्वों को अच्छी तरह जान लिया है उसे एकाकी विहार करने की आज्ञा है, परन्तु जिसने उन्हें अच्छी तरह से नहीं जाना है उसे एकलविहार की आज्ञा नहीं है। सामान्य साधु को संघविहारी होना चाहिए। इस तरह विहार की अपेक्षा एकलविहारी और साधुसंघविहारी ये दो भेद बनते हैं। इस पंचम काल में एकलविहार की अनुमति नहीं है। (ग) आचार और संहनन की उत्कृष्टता-हीनता की अपेक्षा दो भेदजो उत्तम संहनन के धारी हैं तथा सामायिक चारित्र का पालन करते हैं वे 'जिनकल्पी' (कल्प आचार, जिनकल्प-जिनेन्द्रदेववत् आचार) तथा जो अल्पसंहनन वाले हैं तथा छेदोपस्थापना चारित्र में स्थित हैं वे 'स्थविरकल्पी' साधु कहलाते हैं। इस पंचम काल में हीन संहनन वाले स्थविरकल्पी साधु हैं। मूलाचार 1. अरहंतादिसु भत्ती वच्छलदा पवयणाभिजुत्तसु। विज्जदि जदि सासण्णे सा सुहजुत्ता भवे चरिया।। -प्र.सा. 3.46 वेज्जावच्चणिमित्तं गिलाणगुरुबालबुड्ढसमणाणं। लोगिगजणसंभासा ण णिदिदा वा सुहोवजुदा।। -प्र.सा. 3.53 2. गिहिदत्थे य विहारो विदिओऽगिहिदत्थसंसिदो चेव।। एत्तो तदियविहारो णाणुण्णादो जिणवरेहि।। -मू.आ. 148 3. देखें, विहार। 4. दुविहो जिणेहिं कहिओ जिणकप्पो तह य थविरकप्पो य। * जो जिणकप्पो उत्तो उत्तमसंहणणधारिस्स।। ... जिण इव विहरंति सया ते जिणकप्पे ठिया सवणा।। - भावसंग्रह (देवसेनकृत) 119-123 धविरकप्पो वि कहिओ... ... ... / ... ... संहणणं अइणिच्चं कालो सो दुस्समो मणो चवलो। -भावसंग्रह- 124-131 जिनकल्पो निरूप्यते...जिना इव विहरन्ति इति जिनकल्पिका। - भ.आ., वि. 155/356/17 श्रीवर्द्धमानस्वामिना प्राक्तनोत्तमसंहननजिनकल्पचारणपरिणतेषु तदेकधाचारित्रम्। पंचमकालस्थविरकल्पाल्पसंहननसंयमिषु त्रयोदशधोक्तम्। - गो. कर्म./जी.प्र. 547/714/5

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