Book Title: Dev Shastra Aur Guru
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad

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Page 49
________________ देव, शास्त्र और गुरु सरागीसाधु, पापश्रमण, पोलाश्रमण, भ्रष्टाचारीसाधु, बाह्यलिङ्गीसाधु, द्रव्यलिङ्गीसाधु, पार्श्वस्थसाधु आदि कहते हैं। इन्हें मूलाचार में अन्दर से घोडे की लीद के समान निंद्य और बाहर से बगुले के समान दिखावटी कहा है। ये आचार्य की आज्ञा का पालन नहीं करते तथा कुत्सित उपदेश आदि के द्वारा अपना और दूसरों का अकल्याण करते हैं। अतः इन्हें पोला-श्रमण (खोखला-साधु या तुच्छ-श्रमण) भी कहा गया हैं। मिथ्यादृष्टि साधु के पार्श्वस्थ आदि पाँच भेद सदोष मिथ्यादृष्टि साधु के पाँच भेद बतलाएँ हैं-१. पार्श्वस्थ (निरतिचार संयम का पालन न करने वाला शिथिलाचारी), 2. कुशील' (कुत्सित आचरणयुक्त। मूलगुणों और सम्यक्त्व से भ्रष्ट), 3. संसक्त' (असंयत गृहस्थों में आसक्त या मन्त्र, ज्योतिष, राजनीति आदि में आसक्त), 4. अवसन्न या अपसंज्ञक (चारित्र पालने में आलसी तथा कीचड़ में फंसे हुए व्यक्ति की तरह पथभ्रष्ट)और 5. मृगचारित्र (मृग-पशु की तरह आचरण करने वाला, स्वच्छन्द एकाकी-विहारी)। ये पांचों प्रकार के साधु रत्नत्रय से रहित तथा धर्म के प्रति मन्दसंवेगी 1. मू०आ० प्रदीप अ० 3/450-457 2. घोडयलद्दिसमाणस्स बाहिर वगणिहुदकरणचरणस्स। अभंतरम्हि कुहिदस्स तस्स दु किं बज्झजोगेहिं।। - मू०आ० 966 3. आयरियकुलं मुच्चा विहरदि समणो य जो दु एगागी। ण य गेण्हदि उवदेसं पावस्समणोत्ति वुच्चदि दु।। -मू०आ० 961 पिंडोवधिसेज्जाओ अविसोधिय जोय भुंजदे समणो।। मूलवाणं पत्तो भुवणेसु हवे समणपोल्लो।। -मू०आ० 918 4. शीलं च कुत्सितं येषां निंद्यमाचरणं सताम्। स्वभावो वा कुशीलास्ते क्रोधादिग्रस्तमानसाः।। व्रतशीलगुणैींना अयशः कारणे भुवि। कुशला साधुसंगानां कुशीला उदिताः खलाः।। -मू०आ० प्रदीप 3.58-59 5. असक्ता दुर्धियो निन्द्याः असंसृतगुणेषु ये। सदाहारादिगृद्ध्या च वैद्यज्योतिषकारिणः।। राजादिसेविनो मूर्खा मन्त्रतन्त्रादितत्पराः। संसक्तास्ते बुधैः प्रोक्ता धृतवेषाश्च लंपटाः।। -मू०आ०, प्रदीप 3.60-61 तृतीय अध्याय : गुरु (साधु) (उत्साहरहित) होते हैं। ये सभी श्रमण जिनधर्मबाह्य हैं। मर्यादा के विपरीत आचरण करने वाले इन द्रव्यलिङ्गी साधुओं की बहुत निन्दा की गई है। ऐसे मोहयुक्त साधुओं से निमोंही श्रावक को श्रेष्ठ बतलाया गया है। ये दुःखों को तथा नीच गति को प्राप्त करते हैं। इनके लिए ग्रन्थों में राज्यसेवक, ज्ञानमूढ, नटश्रमण, पापश्रमण, अभव्य आदि अनेक प्रकार के अपमानजनक शब्द प्रयुक्त हैं। मिथ्यादृष्टि का आगम-ज्ञान यद्यपि मिथ्यादृष्टियों को शुद्धात्मा का अनुभव नहीं होता परन्तु वे ग्यारह अंग ग्रन्थों के पाठी तथा उनके ज्ञानी हो सकते हैं। ऐसे वे साधु हैं जो पहले ज्ञानी-सम्यग्दृष्टि थे परन्तु कालान्तर में सम्यग्दृष्टि से मिथ्यादृष्टि हो गए। यद्यपि परिणामों की अपेक्षा ये सम्यग्दर्शन से रहित होते हैं, परन्त इनसे जिनागम का उपदेश सुनकर कितने ही भव्यजीव सम्यग्दृष्टि तथा सम्यग्ज्ञानी हो जाते हैं। 1. पासत्थो य कुसीलो संसत्तोसण्ण मिगचरित्तो या दसणणाणचरिते अणिउत्ता मंदसंवेगा।। -मू०अ० 595 पार्श्वस्थाः कुशीला हि संसक्तवेशधारिणः। तथापगतसंज्ञाक्ष मृगचारित्रनायकाः।। -मू०आ०, प्रदीप, अ०३,४५३ तथा देखें, भ०आ०१९४९, -चारित्रसार 143/3 तथा देखें, पृ० 110 वन्दना योग्य कौन नहीं? 2. एते पञ्च श्रमणा जिनधर्मबाह्याः। -चारित्रसार 144/2 3. भ०आ० 290-293, 339-359, 1306-1315, 1952-1957 4. ते वि य भणामि हं जे सयलकलासंजमगुणेहि। बहुदोसाणावासो सुमलिणचित्तो ण सावयसमो सो।। -भावपाहुड 155 पासत्थसदसहस्सादो वि सुसीलो वरं खु एक्को वि। जं संसिदस्स सौलं दंसण-णाण-चरणाणि वढुति।। - भ०आ० 354 गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निमोहो नैव मोहवान्। अनगारो गृही श्रेयान् निर्मोहो मोहिनो मुनेः।। -२०क० 33 पावंति भावसमणा कल्लाणपरं पराई सोक्खाई। दुक्खाई दव्वसमणा णरतिरियकुदेवजोणीए।। -भाव पा० 100 5. देखें, जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश, भाग 2, पृ० 589 6. एकादशाङ्गपाठोपि तस्य स्याद् द्रव्यरूपतः। आत्मानुभूतिशून्यत्वाद् भावतः संविदुज्झितः।। 5.18 न वाच्यं पाठमात्रत्वमस्ति तस्येह नार्थतः। यतस्तस्योपदेशाद्वै ज्ञानं विन्दन्ति केचन।। 5.19 ततः पाठोऽस्ति तेषूच्चैः पाठस्याप्यस्ति ज्ञातृता। ज्ञातृतायां च श्रद्धानं प्रतीतिः रोचन क्रिया।। - लाटीसंहिता 5.20

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