Book Title: Dev Shastra Aur Guru
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad

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Page 51
________________ 84 देव, शास्त्र और गुरु में आया है कि आदिनाथ के काल के जीव सरल-स्वभावी थे, अतः उनका शोधन अति कठिन था। चौबीसवें तीर्थङ्कर के काल के जीव कुटिल हैं, अतः उनसे चारित्र का पालन करवाना कठिन है। इन दोनों कालों के जीव आचार और अनाचार का भेद नहीं कर पाते हैं। अतः इन्हें छेदोपस्थापना चारित्र का कथन किया गया है। दूसरे से तेईसवें तीर्थङ्कर तक के काल के जीव विवेकी थे जिससे उन्हें सामायिकचारित्र का उपदेश दिया गया था। (घ) वैयावृत्य की अपेक्षा दश भेद- वैयावृत्ति के योग्य दस प्रकार के साधु हैं, अन्य नहीं। जब कोई साधु व्याधिग्रस्त हो जाए, या उस पर कोई उपसर्ग आ जाए या वह सत्-श्रद्धान से विचलित होने लगे तो क्रमशः उसके रोग का प्रतिकार करना, संकट दूर करना तथा उपदेशादि से सम्यक्त्व में स्थिर करना वैयावृत्य तप है। जिनकी वैयावृत्ति करनी चाहिए, उनके नाम हैं-१. आचार्य, 2. उपाध्याय , 3. तपस्वी, ४.शैक्ष (शिष्य = जो श्रुत का अभ्यास करते हैं), 5. ग्लान(रोगी), 6. गण (वृद्धमुनियों की परिपाटी के मुनि), 7. कुल (दीक्षा देने वाले आचार्य की शिष्य-परम्परा),८. संघ, 9. साधु (चिरदीक्षित साधु) और 10. मनोज्ञ (लोक में मान्य या पूज्य)। इसी भेद से साधु के दश भेद हैं। (ङ) चारित्र-परिणामों की अपेक्षा पुलाकादि पाँच भेद- चारित्रपरिणामों की अपेक्षा सच्चे साधुओं के पाँच भेद हैं- 1. पुलाक- उत्तरगुणों की चिन्ता न करते हुए कभी-कभी मूलगुणों में दोष लगा लेने वाले अर्थात् पुआलसहित चावल की तरह मलिनवृत्ति वाले। ये मरकर बारहवें स्वर्ग तक जा सकते हैं। 2. बकुश- बकुश का अर्थ है चितकबरा अर्थात् निर्मल आचार में कुछ धब्बे पड़ जाना। मूलगुणों से निर्दोष होने पर भी कमण्डलु, पिच्छी आदि में ममत्व रखने वाले साधु बकुश कहलाते हैं। ये मरकर सोलहवें स्वर्ग तक जा सकते हैं। 1. बावीसं तित्थयरा सामाइयसंजमं उवदिसंति। छेदुवट्ठावणियं पुण भयवं उसहो य वीरो य।।५३५ आदीए दुव्विसोधण णिहणे तह सुइ दुरणुपाले य। पुरिमा य पच्छिमा वि हु कप्पाकप्पं ण जाणंति।। - मू.आ. 537 2. गुणधीए उवज्झाए तबस्सि सिस्से य दुन्चले। साहुगणे कुले संघे समणुण्णे य चापदि।। - मू.आ. 390 आचार्योपाध्यायतपस्विशैक्षग्लानगणकुलसंघसाधुमनोज्ञानाम्। -त. सू. 9/24 3. पुलाक-बकुश-कुशील-निम्रन्थ-स्नातका निर्ग्रन्थाः। -त. सू. 9/46 तृतीय अध्याय : गुरु (साधु) 3. कुशील- इसके दो भेद हैं- प्रतिसेवना-कुशील (कभी-कभी उत्तरगुणों में दोष लगा लेने वाले) और कषाय-कुशील (संज्वलन कषाय पर पूर्ण अधिकाररहित)। ये मरकर सर्वार्थसिद्धि तक जा सकते हैं। 4. निर्ग्रन्थ- इन्हें अन्तर्मुहूर्त में केवलज्ञान प्रकट हो जाता है। इनके मोहनीय कर्म का उदय नहीं रहता। शेष घातिया कर्म भी अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं ठहरते। ये मरकर सर्वार्थसिद्धि तक जा सकते हैं। 5. स्नातक- जिनके समस्त घातिया कर्म नष्ट हो गए हैं, ऐसे सयोगकेवली और अयोगकेवली। ये मरकर नियम से मोक्ष जाते हैं। पुलाकादि साधु मिथ्यादृष्टि नहीं ये पाँचों ही साधु सम्यग्दृष्टि हैं तथा उत्तरोत्तर श्रेष्ठ चारित्र वाले हैं। इनमें चारित्ररूप परिणामों की अपेक्षा न्यूनाधिकता के कारण भेद होने पर भी नैगम, संग्रह आदि द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा सभी निम्रन्थ हैं। ये पुलाकादि तीनों प्रकार के मुनि दोषों को दोष मानते हैं तथा उन्हें दूर करने का प्रयत्न करते हैं। अतः इनके ये साधारण दोष इन्हें मुनिपद से भ्रष्ट नहीं करते। जो भ्रष्ट हो और भ्रष्ट होता चला जाए, वह सच्चा मुनि नहीं है। पुलाकादि मुनि छेदोपस्थापना द्वारा पुनः संयम में स्थित होते हैं, अतः सच्चे साधु हैं। निश्चय-नयाश्रित शुद्धोपयोगी साधु जो साधु केवल शुद्धात्मा में लीन होता हुआ अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग व्यापार से रहित होकर निस्तरण समुद्र की तरह शान्त रहता है, स्वर्ग एवं मोक्षमार्ग के विषय में थोड़ा-सा भी उपदेश या आदेश नहीं करता है, लौकिक उपदेशादि से सर्वथा दूर है, वैराग्य की परमोत्कृष्ट अवस्था को प्राप्त है, अन्तरंग और बहिरंग मोहग्रन्थि को खोलता है, परीषहों और उपसर्गों से पराजित नहीं होता है, कामरूपशत्रु-विजेता होता है तथा इसी प्रकार अन्य अनेक गुणों से युक्त होता है, वही निश्चय नय से साधु है। ऐसा साधु ही वास्तव में नमस्कार के योग्य है, अन्य नहीं। इसी प्रकार अन्य गुणपरक लक्षण निश्चयसाधु के मिलते हैं, जैसे१. त एते पञ्चापि निम्रन्थाः। चारित्रपरिणामस्य प्रकर्षापकर्षभेदे सत्यपि नैगमसंग्रहादिनयापेक्षया सर्वेऽपि ते निम्रन्था इत्युच्यन्ते। -स.सि. 9/46 विशेष के लिए देखिए, जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश, भाग 4, पृ. 409 5. आस्ते स शुद्धमात्मानमास्तिघ्नुवांनश्च परम्। स्तमितान्तर्बहिर्जल्पो निस्तरङ्गाब्धिवन्मुनिः।। नमस्या श्रेयसेऽवश्यं नेतरो विदुषां महान्।। -पं.अ.,उ. 669-674

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