Book Title: Dev Shastra Aur Guru
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad

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Page 56
________________ देव, शास्त्र और गुरु आहार लेने का काल- सूर्य के उदय और अस्तकाल की तीन घड़ी (24 मिनट की एक घड़ी) छोड़कर मध्याह्नकाल में एक, दो या तीन मुहूर्त तक साधु आहार ले सकता है। आहार के समय खड़े होने की विधि- समान और छिद्ररहित जमीन पर ऐसा खड़ा होवे जिससे दोनों पैरों में चार अंगुल का अन्तराल रहे। स्थिर और समपाद खड़ा होवे। दीवाल वगैरह का सहारा न लेवे। भोजन के समय अपने पैरों की भूमि, जूठन पड़ने की भूमि तथा जिमाने वाले के प्रदेश की भूमिइन तीनों भूमियों की शुद्धता का ध्यान रखे। जब तक खड़े होकर भोजन करने की सामर्थ्य है तभी तक भोजन करे। क्या एकाधिक साधु एकसाथ एक चौके में आहार ले सकते हैं? आहार देते समय गृहस्थ को चाहिए कि जिस मुनि को देने के लिए हाथ में आहार ले वह आहार उसी मुनि को देना चाहिए, अन्य मुनि को नहीं। यदि कोई मुनि अन्य के निमित्त दिए जाने वाले आहार को लेता है तो उसे छेद-प्रायश्चित्त करना होगा। इससे दो बातें स्पष्ट होती हैं- 1. एक चौके में एक साथ एकाधिक साधु आहार ले सकते हैं, तथापि 2. आहार लेते समय विशेष सावधानी वर्तना आवश्यक है। यहाँ इतना विशेष ज्ञातव्य है कि जब मुनि एक साथ एक घर में आहार लेवें तो श्रावक उन्हें ऐसा खड़ा करे जिससे दोनों आमने-सामने न हों (पीठ से पीठ हो), अन्यथा एक को अन्तराय आने पर दूसरे को भी अन्तराय हो जायेगा। यह एक अपवाद व्यवस्था है। अतः ध्यान रहे कि न तो मूलव्रत भंग हो और न असंगतियाँ पैदा हों। तृतीय अध्याय : गुरु (साधु) क्या चौके के बाहर से लाया गया आहार ग्राह्य है? चौके के बाहर से लाया गया आहार ग्राह्य है यदि वह सरल पंक्ति (सीधीपंक्तिबद्ध) से तीन अथवा सात घरों से लाया गया हो। यदि वह आहार विना पंक्ति के यहाँ वहाँ के घरों से लाया गया हो तो अग्राह्य है। भिक्षाचर्या को जाते समय सावधानी मुनि भिक्षा के लिए पंक्तिबद्ध घरों में जाते हैं। पंक्तिबद्ध घरों में कुछ उच्चवर्ग के, कुछ साधारणवर्ग के तथा कुछ मध्यमवर्ग के श्रावक हो सकते हैं। कोई घर अज्ञात (अपरिचित), तो कोई अनज्ञात (परिचित) हो सकता है। मनि इन सब में बिना भेद किए हुए आहारार्थ निकले। इससे आहार में गृद्धता नहीं आती है। आहार लेते समय सावधानी ___ यदि कोई स्त्री अपने बालक को स्तनपान करा रही हो या गर्भिणी हो तो ऐसी स्त्रियों का दिया हुआ आहार नहीं लेना चाहिए। रोगी, अतिवृद्ध, बालक, उन्मत्त, अंधा, गूंगा, अशक्त, भययुक्त, शंकायुक्त, जो अतिशय नजदीक खड़ा हो, जो दूर खड़ा हो ऐसे पुरुषों से आहार नहीं लेना चाहिए। जिसने लज्जा से अपना मुख फेर लिया हो, जिसने जूता-चप्पल पर पैर रखा हो, जो उंची जगह पर खड़ा हो ऐसे पुरुषों के द्वारा दिया गया आहार भी नहीं लेना चाहिए। ट्टी हुई कलछुल से दिया हुआ भी आहार नहीं लेना चाहिए।' दातार के सात गुण जो दाता निदान (फल की इच्छा) से रहित है तथा श्रद्धा, भक्ति, विज्ञान, सन्तोष, शक्ति, अलुब्धता और क्षमा- इन सात गुणों से युक्त है वही दातार प्रशंसनीय है। ये गुण कहीं-कहीं भिन्न रूपों में भी मिलते हैं।' 1. उज्जू तिहि सत्तहि वा घरेहि जदि आगदं दु आचिण्णं। परदो वा तेहिं भवे तचिवरीदं आणाचिणं / / -मू.आ. 439 2. अण्णादमणुण्णादं भिक्खं णिच्चच्चमज्झिमकलेस। घरपंतिहिं हिंडंति य मोणेण मुणी समादिति।। - मू.आ.८१५ 3. स्तनं प्रयच्छन्त्या गर्भिण्या वा दीयमानं न गृहणीयात्। रोगिणा अतिवृद्धेन बालेनोन्मत्तेन पिशाचेन मुग्धेनान्धेन मूकेन दुर्बलेन भीतेन शङ्कितेन, अत्यासन्नेन अदूरेण लज्जाव्यावृतमुख्या आवृतमुख्या उपानदुपरिन्यस्तपादेन वा दीयमानं न गृहणीयात्। खण्डेन भिन्नेन वा कडककच्छुकेन दीयमानं वा। -भ.आ./वि. 1206/1204/17 4. श्रद्धा भक्तिश्च विज्ञानं पुष्टिः शक्तिरलुब्धता। क्षमा च यत्र सप्तैते गुणाः दाता प्रशस्यते।। -गुणनन्दी श्रावकाचार 151 5. रा.वा. 7/39; महा पु.२०/८२-८५; स.सि. 7/39; पु.सि.उ. 169 1. देखें, पृ. 92, टि. नं. 4 तथा आचारसार 1/49 2. देखें, पृ. 93, टि.नं. 1 तथा अनगारधर्मामृत 9/94 समे विच्छिद्रे भूभागे चतुरगुलपादान्तरो निश्चलः कुड्यस्तम्भादिकमनवलम्व्य तिष्ठेत्। - भ.आ./वी. 1206/1204/15 3. यावत्करौ पुटीकृत्य भोक्तुमुद्भः क्षमेऽदम्यहम्। तावनेवान्यथेत्यागूसंयमार्थं स्थिताशनम्।। -अन.ध. 9/93 4. पिण्डः पाणिगतोऽन्यस्मै दातुं योग्यो न युज्यते। दीयते चेन्न भोक्तव्यं भुङ्क्ते चेच्छेदभाग् यतिः / / - योगसार 8/64

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