Book Title: Dev Shastra Aur Guru
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad

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Page 42
________________ देव, शास्त्र और गुरु साधु (मुनि) जब श्रावक दर्शन, व्रत आदि के क्रम में आत्म-विकास की ग्यारहवीं प्रतिमा (उद्दिष्टत्याग) में पहुँचकर मात्र एक लंगोटीधारी 'ऐलक' हो जाता है तब वह साधु बनने का पूर्ण अभ्यास करता है। 'ऐलक' अवस्था तक वह श्रावक ही कहलाता है। इसके बाद 'ऐलक' की योग्यता की परीक्षा लेकर जब आचार्य उसे विधिपूर्वक अनगार दीक्षा देता है तब वह साधु कहलाता है। साधु बनने के पूर्व धारण की गई एकमात्र लंगोटी को भी छोड़कर उसे नग्न दिगम्बर हो जाना पड़ता है। यहाँ भी आत्मशद्धि की प्रमखता होती है अन्यथा नग्न होकर भी वह साधु कहलाने के योग्य नहीं है। साधु के पर्यायवाची नाम श्रमण (श्रम = तपश्चरण करने वाला, या समताभाव रखने वाला), संयत (संयमी), ऋषि (ऋद्धि-प्राप्त साधु), मुनि (मनन करने वाला), साधु, वीतरागी, अनगार (घर, स्त्री आदि का त्यागी), भदन्त (सर्व-कल्याणों को प्राप्त), दान्त (पंचेन्द्रिय-निग्रही) और यति (इन्द्रियजयी)- ये सभी साधु के पर्यायवाची हैं।' भिक्षु, योगी (तपस्वी), निर्ग्रन्थ (कर्मबन्धन की गांठ से रहित), क्षपणक, निश्चल, मुण्ड (ऋषि), दिग्वास, वातवसन, विवसन, आर्य, अकच्छ (लंगोटी-रहित) आदि शब्द भी तत्तत् विशेषताओं के कारण साधु के पर्यायवाची नाम हैं। सच्चे साधु के गुण : सच्चे साधु के लिए सिंह के समान पराक्रमी, हाथी के समान स्वाभिमानी, उन्नत बैल के समान भद्रप्रकृति, मृग के समान सरल, पशुवत् निरीह गोचरीवृत्ति वाला, पवनवत् निःसंग सर्वत्र विचरण करने वाला, सूर्यवत् तेजस्वी या सकल तत्त्वप्रकाशक, सागरवत् गम्भीर, मेरुसम अकम्प, चन्द्रसम शान्तिदायक, मणिवत् ज्ञान-प्रभापुञ्जयुक्त, पृथिवीवत् सहनशील, सर्पवत् अनियत-वसतिका में रहने वाला, आकाशवत् निरालम्बी या निर्लेप तथा सदा परमपद का अन्वेषण तृतीय अध्याय: गुरु (साधु) करने वाला कहा है। रलकरण्डश्रावकाचार में भी कहा है 'विषयों की आशा से रहित, निरारम्भ, अपरिग्रही तथा ज्ञान-ध्यान में लीन रहने वाले ही प्रशस्त तपस्वी साधु हैं। अन्यत्र भी कहा है मोक्ष की साधना करने वाले, मूलगुणादि को सदा आत्मा से जोड़े रखने वाले तथा सभी जीवों में समभाव रखने वाले साधु होते हैं।' जो मोक्षमार्गभूत दर्शन, ज्ञान और चारित्र को सदा शुद्धभाव से आत्मसिद्धिहेतु साधते हैं, वे मुनि हैं, साधु हैं तथा नमस्कार के योग्य हैं। वैराग्य की पराकाष्ठा को प्राप्त, प्रभावशाली, दिगम्बररूपधारी, दयाशील, निर्ग्रन्थ, अन्तरंग-बहिरंग गांठ को खोलने वाला, व्रतों को जीवनपर्यन्त पालने वाला, गुणश्रेणिरूप से कर्मों की निर्जरा करने वाला, तपस्वी, परीषह - उपसर्गविजयी, कामजयी, शास्त्रोक्त-विधि से आहार लेने वाला, प्रत्याख्यान में तत्पर इत्यादि अनेक गुणों को धारण करने वाला साधु होता है। उत्सर्ग मार्गानुसार वह स्वर्ग और मोक्षमार्ग का थोड़ा भी आदेश तथा उपदेश नहीं करता। विकथा करने का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता। ऐसे साधु को ही नमस्कार करना चाहिए इतर को नहीं, भले ही वह श्रेष्ठ विद्वान् क्यों न हो?" 1. सीह-गय-वसह-मिय-पसु-मारूद-सूरूवहिमंदरिद्-मणी। खिदि-उरगंबरसरिसा परमपयविमग्गया साहू।। -ध० 1/1.1.1/31/51 2. विषयशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते।। -र० के० 10. 3. णिव्वाणसाधए जोगे सदा जुजदि साधवो। समा सव्वेसु भूदेसु तम्हा ते सव्वसाधबो।। - मू०आ० 512 4. मार्ग मोक्षस्य चारित्रं सदृग्ज्ञप्तिपुरस्सरम्।। साधयत्यात्मसिद्ध्यर्थं साधुरन्वर्थसंज्ञकः।। -पं०अ०,उ०६६७ दंसण-णाणसमर्ग मग्गं मोक्खस्स जो हु चारित्तं। साधयदि णिच्चसुद्धं साहू स मुणी णमो तस्स।। -द्रव्यसंग्रह 54/221 5. वैराग्यस्य परां काष्ठामधिरूदोऽधिकप्रभः। दिगम्बरो यथाजातरूपधारी दयापरः।।६७१ निर्ग्रन्थोऽन्तर्बहिर्मोहग्रन्थेरुद्ग्रन्थको यमी। कर्मनिर्जरका श्रेण्या तपस्वी स तपोंशुभिः।।६७२ इत्याद्यनेकधाऽनेकैः साधुः साधुगुणैः श्रितः। नमस्या श्रेयसेऽवश्यं नेतरो विदुषां महान्।।६७४ 1. समणोत्ति संजदो त्ति य रिसि मुणि साधु त्ति वीदरागो ति। णामाणि सुविहिदाणं अणगार भदंत दंतोत्ति।। -मू०आ०८८८ २.बृहद्नयचक्र 332, प्रवचनसार, ता वृ०, 249 तथा देखिए, भगवान् महावीर और। उनका तत्त्व-दर्शन (आ० देशभूषण जी), पृ० 666-673 /

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