________________ देव, शास्त्र और गुरु शोभनगुणयुक्त निर्यापक मिलें उस समय उनसे ही कार्य करा लेना चाहिए। यहाँ इतना ध्यान रखना चाहिए कि जहाँ तक संभव हो योग्य निर्यापक का अन्वेषण अवश्य करना चाहिए। अन्यथागति होने पर या समयाभाव की स्थिति में ही हीनाधिक शोभनगुणयुक्त निर्यापक से कार्य चलाना चाहिए, अयोग्य से नहीं। सल्लेखनार्थ निर्यापकों की संख्या क्षपक की सल्लेखना कराने हेतु कितने निर्यापक या परिचारक होने चाहिए? इस सन्दर्भ में अधिकतम 42, 44 तथा 48 निर्यापकों की संख्या बतलाई है। संक्लेश-परिणामयुक्त काल में चार तथा अतिशय संक्लेशकाल में दो निर्यापक क्षपक का कार्य साध सकते हैं। किसी भी काल में एक निर्यापक न हो, क्योंकि एक निर्यापक के होने पर वैयावृत्त्यादि ठीक से सम्भव न होने से संक्लेश परिणाम उत्पन्न होते हैं और रत्नत्रय के बिना मरण होने से दुर्गति भी होती है। क्षपक की वैयावृत्ति आदि के सन्दर्भ में कार्यविभाजन करना होता है जिसके लिए एकाधिक परिचारक आवश्यक होते हैं। सल्लेखना कब और क्यों? सल्लेखना अथवा समाधिमरण तब स्वीकार किया जाता है जब असाध्य रोगादि से मृत्यु सुनिश्चित लगे। इसमें तप के द्वारा काय और कषायों को कृश किया जाता है। यह मृत्यु का तटस्थभाव से स्वागत है, आत्महत्या नहीं। तृतीय अध्याय : गुरु (साधु) योग्य कारणों के अभाव में सल्लेखना लेने का निषेध किया गया है। अतः मृत्युकाल सन्निकट है या नहीं इसका ठीक से परीक्षण आवश्यक है। सदोष-शिष्य के प्रति गुरु-आचार्य का व्यवहार गृहस्थों के लिए यद्यपि सभी साधु गुरु हैं परन्तु साधुसंघ में भी परस्पर गुरु-शिष्य-भाव होता है। योग्य गुरु का अपने सदोष-शिष्य के प्रति कैसा व्यवहार होना चाहिए? इस सन्दर्भ में निम्न बातें विशेषरूप से चिन्तनीय हैं 1. शिष्य के दोषों की उपेक्षा न करे-यदि कोई शिष्य चारित्र में दोष लगाता है तो आचार्य को अपने मृदु-स्वभाव के कारण उसके दोषों की उपेक्षा नहीं करना चाहिए। प्रायश्चित्त देकर उसकी छेदोपस्थापना कराना चाहिए। यदि वह छेदोपस्थापना स्वीकार न करे तो उसका त्याग कर देना चाहिए। यदि ऐसे अयोग्य साधु को गुरु (आचार्य) मोह के कारण संघ में रखता है और उसे प्रायश्चित्त नहीं देता है, तो वह गुरु भी प्रायश्चित्त के योग्य है। 2. पर-हितकारी कटुभाषी भी गुरु श्रेष्ठ है- शिष्य के दोषों का निवारण न करने वाले मृदुभाषी गुरु शिष्य का अहित करते हैं। ऐसे मृदुभाषी गुरु भद्र नहीं हैं। जो गुरु शिष्य के दोषों को प्रकट करके उससे प्रायश्चित्त करवाता है, वह गुरु कठोर होकर भी परमकल्याणकारक है, क्योंकि उससे अधिक और कौन उसका उपकारी गुरु हो सकता है। जो जिसका हित करना चाहता है वह उसे हित के कार्यों में बलात् प्रवृत्त करता है। जैसे बच्चे का हित चाहने वाली माता रोते हुए बच्चे का मुँह फाड़कर बलात् उसे कड़वी दवा पिलाती है, वैसे ही गुरु अपने शिष्य का कल्याण करने के लिए उसे बलात् प्रायश्चित्त देता है। कठोर वचन भी बोलता है। आत्महित-साधक होते 1. तस्स ण कप्पदि भत्तपइण्णं अणुवट्ठिदे भये पुरदो। सो मरणं पच्छितो होदि हु सामण्णणिविणो।। -भ. आ. 76 2. जदि इदरो सोऽजोग्गो छेदमुवट्ठावणं च कादव्वं। जदि णेच्छदि छंडेज्जो अह गेहणदि सोवि छेदरिहो।। - मू. आ. 168 3. जिब्भाए वि लिहतो ण भद्दओ जत्थ सारणा णत्थि।। - भ. आ. 481/703 दोषान् कांचन तान्प्रवर्तकतया प्रच्छाद्य गच्छत्ययं, सार्धं तैः सहसा प्रियेद्यदि गुरुः पश्चात् करोत्येष किम्? तस्मान्मे न गुरुर्गुरुर्गुरुतरान् कृत्वा लघूश्च स्फुटं. ब्रूते या सततं समीक्ष्य निपुणं सोऽयं खला सद्गुरुः।। -आत्मानुशासन 142 1. एदारिसमि थेरे असदि गणत्थे तहा उवज्झाए। होदि पवत्तो थेरो गणधरवसहो य जदणाए।। 629 जो जारिसओ कालो भरदेरवदेसु होइ वासेसु। ते तारिसया तदिया चोद्दालीसं पि णिज्जवया।। -भ. आ. 671 2. गीदत्था भयवंता अडदालीसं तु णिज्जवया।। 648 णिज्जावया य दोण्णि वि होति जहण्णेण कालसंसयणा। एक्को णिज्जावयओ ण होइ कइया वि जिणसुत्ते।। 673 एगो जइ णिज्जवओ अप्पा चत्तो परोयवयणं च। वसणमसमाधिमरणं वड्डाहो दुग्गदी चावि।। -भ. आ. 674 इह हि जिनेश्वरमार्गे मुनीनां सल्लेखना समये हि द्विचत्वारिंशदभिराचार्यैर्दत्तोत्तमार्थप्रतिक्रमणाभिधानेन देहत्यागो धर्मो व्यवहारेण। -नि.सा., ता. वृ. 92 तथा देखें,पृ.६०, टि. नं. 2, भ. आ. 519-520, 675-679