________________ 72 देव, शास्त्र और गुरु करवट से प्रासुक भूमि पर सोना), 5. अदन्तधावन (दांतों का शोधन न करना), 6. स्थितभोजन (शुद्ध भूमि में खड़े-खड़े विधिपूर्वक आहार लेना) और 7. एकभक्त (दिन में एक बार निर्धारित समय पर भोजन करना)- ये दिगम्बर जैन साधु के सात विशेष चिह्न हैं। लोच से लेकर एकभक्त तक के सात मलगण साधु के बाह्य-चिह्न हैं। मयूरपिच्छ और कमण्डलु रखना भी साधु के बाह्य-चिह्न हैं। मयूरपिच्छ से साधु सम्मार्जन करके जीवों की रक्षा करते हैं तथा कमण्डल में शुद्ध प्रासुक जल रहता है जो शौचादि क्रियाओं के उपयोग में आता है। लोच आदि मूलगुण शरीर को कष्टसहिष्णु बनाते हैं तथा पराधीनता से मुक्त करके प्रकृति से तादात्म्य जोड़ते हैं। लोक-लज्जा तथा लोक-भय का नामोनिशान मिट जाता है। चारित्रपालन में दृढ़ता आती है। विषयों में निरासक्ति से वीतरागता बढ़ती है। नीरस एवं अल्पभोजी होने तथा संस्कारादि (अस्नान, अदन्तधावन आदि) न करने पर भी स्वस्थ और तेजस्वी होना उनकी आत्मशक्ति का प्रभाव है। इन मूलगुणों को कभी नहीं छोड़ना चाहिए। जब मूलगुणों के पालन करने में अशक्त हो जाए तो आहार आदि का त्याग करके समाधिमरण ले लेना चाहिए। जैसा कि कहा है- 'जब साधु मूलगुणों के पालन करने में अशक्त हो जाए, शरीर क्षीण हो जाए, आँखों से ठीक दिखालाई न दे तो उसे आहारत्याग करके समाधिमरण ले लेना चाहिए।' मूलगुणों का महत्त्व- वृक्षमूल के समान मुनि के लिए ये अट्ठाईस मूलगुण (न कम और न अधिक ) हैं। इनमें थोड़ी भी कमी उसे साधुधर्म से च्युत कर देती है। मूलगुण-विहीन साधु के सभी बाह्य-योग (क्रियायें) किसी काम के नहीं हैं, क्योंकि मात्र बाह्ययोगों से कर्मों का क्षय सम्भव नहीं है।' मूलगुणविहीन साधु कभी सिद्धिसुख नहीं पाता है, अपितु जिन-लिङ्ग की विराधना करता है। 1. चक्टुं वा दुब्बलं जस्स होज्ज सोदं वा दुब्बलं जस्स। जंघाबलपरिहीणो जो ण समत्थो विहरिदुं वा।। -भ०आ०७३ 2. यतेर्मूलगुणाश्चाष्टविंशतिर्मूलवत्तरोः। नात्राप्यन्यतमेनोना नातिरिक्ताः कदाचन।।७४३ सर्वैरभिः समस्तैश्च सिद्धं यावन्मुनिवतम्। न व्यस्तैयस्तमात्र तु यावदंशनयादपि।। -पं०अ०, उ०७४४ 3. मूलं छित्ता समणो जो गिण्हादि य बाहिर जोग। बाहिरजोगा सव्वे मूलविहूणस्स किं करिस्संति।। -मू०आ० 920 4. मोक्षपाहुड 98 तृतीय अध्याय : गुरु (साधु) 73 मूलगुणों के बिना उत्तरगुणों में दृढ़ता सम्भव नहीं है। मूलगुणों को छोड़कर उत्तरगुणों के परिपालन में यत्नशील होकर निरन्तर पूजा आदि की इच्छा रखने वाले साधु का प्रयल मूलघातक है। जिस प्रकार युद्ध में मस्तक-छेदन की चिन्ता न कर केवल आंगुलि-छेदन की चिन्ता करने वाला मूर्ख योद्धा विनष्ट हो जाता है उसी प्रकार केवल उत्तरगुणों की रक्षा करने वाला साधु विनष्ट हो जाता है। अतएव मूलगुणों के मूल्य पर उत्तरगुणों की रक्षा करना योग्य नहीं है। मूलगुणों की रक्षा करते हुए उत्तरगुणों की रक्षा करना न्यायसंगत है। शील के अठारह हजार भेद ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करना अतिकठिन है। अतएव साधु के ब्रह्मचर्यव्रत (चतुर्थ महाव्रत) में किसी प्रकार की कमी न हो एतदर्थ जिन चेतन और अचेतन स्त्री-सम्बन्धों (कामभोग-संबन्धों) में सावधानी रखनी पड़ती है उन सम्बन्धों की अपेक्षा शील के अठारह हजार भेद (गुण) बतलाए हैं। वस्तुतः पंचेन्द्रियों के विषयों से विरक्त होना ही शील है और ये शील व्रतों के रक्षार्थ हैं। इसके भेद दो प्रकार से किए गए हैं 1. मुक्त्वा मूलगुणान् यतेर्विदधतः शेषेषु यत्नं परं, दण्डो मूलहरो भवत्यविरतं पूजादिकं वाञ्छतः। एक प्राप्तमरेः प्रहारमतुलं हित्वा शिरश्छेदकं, रक्षत्यङ्गलिकोटिखण्डनकर कोऽन्यो रणे बुद्धिमान्।। -पानंदि पञ्चविंशतिका 1/40 तथा देखें, मूलाचार-प्रदीप, 4/312-319. 2. वद परिरक्खणं सीलं णाम। -ध 8/3.41/82 सीलं विसयविरागो। - शील पाहुड 40 जोए करणे सण्णा इंदिय भोम्मादि' समणधम्मे या अण्णोण्णेहिं अभत्था अट्ठारहसीलसहस्साह।। -मू०आ० 1017 तिण्हं सुहसंजोगो जोगो करणं च असुहसंजोगो। आहारादी सण्णा फासं दिय इंदिया णेया।।१०१८ पुढविउदगागणिमारुद-पत्तेय अणंतकायिया चेव। विगतिगचदुपंचेदिय भोम्मादि हवदि दस एदे।।१०१९ खंती मद्दव अज्जव लाघव तव संजमो आकिंचणदा। तह होदि बंभचेरं सच्चं चागो य दस धम्मा।। -मू०आ० 1029