________________ 58 देव, शास्त्र और गुरु शिष्य को अपना उत्तराधिकारी बनाता है। ऐसे उत्तराधिकारी को 'बालाचार्य' कहते हैं। आचार्य अपने गच्छ का अनुशासन करने हेतु शुभ तिथि, शुभ नक्षत्र आदि में अपने समान गुण वाले बालाचार्य पर गण को विसर्जित कर देते हैं। उस समय आचार्य अनुशासन-सम्बन्धी कुछ उपदेश बालाचार्य को देते हैं तथा स्वयं समाधिमरण आदि की तैयारी में लग जाते हैं। नियम भी है कि सल्लेखना के समय तथा श्रेणी-आरोहण के समय आचार्य-पद का त्याग कर दिया जाता है या स्वतः त्याग हो जाता है। एलाचार्य ‘एला' शब्द का अर्थ है 'इलायची'। जिस तरह इलायची आकार में छोटी होकर भी महत्त्वपूर्ण होती है उसी तरह जो अभी आचार्य तो नहीं है परन्तु आचार्यवत् गुणों के कारण आचार्य के कार्यों को करता है उसे 'एलाचार्य' कहते हैं। यह गुरु की अनुपस्थिति में अन्य मुनियों को चारित्र आदि के क्रम को बतलाता है। बालाचार्य (युवाचार्य) और एलाचार्य ये दोनों आचार्य परिस्थिति-विशेष में मुख्य आचार्य के कार्य-संचालन में सहायक होते हैं। इन्हें आचार्य के भेद नहीं मानना चाहिए। आचार्य वही है जिसका वर्णन पहले किया गया है। निर्यापकाचार्य निर्यापकाचार्य का विशेष महत्त्व रहा है। इसमें आचार्य के गुणों के साथ एक विशेषविधि की दक्षता होती है। ये दो प्रकार के होते हैं- छेदोपस्थापना 1. कालं संभाविता सव्वगणमणुदिसं च बाहरिय। सोमतिहिकरण-णक्खत्तविलग्गे मंगलागासे।। 273 गच्छाणुपालणत्थं आहोइय अत्तगुणसमं भिक्खू तो तम्मि गणविसगं अप्पकहाए कुणदि धीरो।। -भ, आ, 274 2. सल्लेहणं करेंतो जदि आयरिओ हवेज्ज तो तेण। ताए वि अवत्थाए चितेदव्वं गणस्स हिय।। -भ, आ. 272 आमंतेऊण गणिं गच्छम्मि तं गणिं ठवेदूण। तिविहेण खमावेदि हु स बालउड्ढाउलं गच्छं।। - भ. आ. 276 तथा देखें, पंचाध्यायी, उत्तरार्ध 709-713 3. अनुगुरोः पश्चादिशति विधत्ते चरणक्रममित्यनु दिक् एलाचार्यस्तस्मै विधिना। - भ. आ. 177, 395 तृतीय अध्याय : गुरु (साधु) कराने वाले और सल्लेखना कराने वाले। ये दो भेद कार्य की अपेक्षा से हैं। प्रवचनसार की तात्पर्यवृत्ति टीका में निर्यापकाचार्य को 'शिक्षागुरु' और 'श्रुतगुरु' बतलाया है तथा निर्यापक का लक्षण किया है- 'संयम में छेद होने पर प्रायश्चित देकर संवेग एवं वैराग्यजनक परमागम के वचनों के द्वारा जो साधु का संवरण करते हैं उन्हें निर्यापक कहते हैं / अर्थात् संयम से च्युत साधु को दीक्षाछेदरूप प्रायश्चित्त के द्वारा पुनः संयम में स्थापित करना तथा सदा समाधिमरण के इच्छुक साधु की इच्छा को सधवाना निर्यापकाचार्य का प्रमुख कार्य है। छेदोपस्थापना की दृष्टि से निर्यापकाचार्य दीक्षा (लिङ्गग्रहण) के समय निर्विकल्प सामायिक संयम के प्रतिपादक आचार्य प्रव्रज्यादायक गुरु हैं। तदनन्तर दीक्षा में छेद (कमी) होने पर सविकल्प छेदोपस्थापना संयम के प्रतिपादक आचार्य को छेदोपस्थापक (पनःस्थापक) निर्यापक कहते हैं। इस प्रकार जो छिन्न-संयम के प्रतिसन्धान की विधि के प्रतिपादक हैं वे निर्यापकाचार्य हैं। अर्थात् संयम-पालन में प्रमाद आदि के कारण गड़बड़ी होने पर पुनः संयम में प्रायश्चित्त-विधिपूर्वक स्थापित करानेवाले को छेदोपस्थापक निर्यापकाचार्य कहते हैं। सल्लेखना की दृष्टि से निर्यापकाचार्य सल्लेखना की सम्यक् साधना निर्यापकाचार्य के बिना बहुत कठिन है। इसीलिए शास्त्रकारों ने कहा है कि एक से बारह वर्षों तक, सात सौ से भी अधिक योजन तक विहार करके यदि योग्य निर्यापकाचार्य को खोजा जा सके तो अवश्य खोजना चाहिए। उत्कृष्ट निर्यापकाचार्य के संरक्षण (चरणमूल) में यदि समाधिमरण लिया जाता है तो उसे चारों प्रकार की आराधनाओं (ज्ञान, दर्शन, 1. छेदयोर्ये प्रायश्चित्तं दत्वा संवेगवैराग्यजनकपरमागमवचनैः संवरणं कुर्वन्ति ते निर्यापकाः शिक्षागुरवः श्रुतगुरवश्चेति भण्यते। -प्र. सा., ता. वृ. 210/284/15 2. यतो लिङ्गग्रहणकाले निर्विकल्पसामायिकसंयमप्रतिपादकत्वेन यः किलाचार्यः प्रव्रज्यादायका स गुरुः। या पुनरनन्तरं सविकल्पच्छेदोपस्थापनसंयमप्रतिपादकत्वेन छेदं प्रत्युपस्थापकः स निर्यापकः। योऽपि छिन्नसंयमप्रतिसन्धानविधानप्रतिपादकत्वेन छेदे सत्युपस्थापकः सोऽपि निर्यापक एव। ततश्छेदोपस्थापकः परोऽप्यस्ति। -प्र. सा./ता. प्र. 210 3. पंचच्छसत्तजोयणसदाणि तत्तोऽहियाणि वा गंतुं। णिज्जावगमण्णेसदि समाधिकामो अणुण्णाद।। 401 एक्कं वा दो वा तिण्णि य वारसवरिसाणि वा अपरिदंतो। जिणवयणमणुण्णादं गवेसदि समाधिकामो दु।। - भ. आ. 402