________________ देव, शास्त्र और गुरु जिससे स्वस्थ रहे, बीमार न पड़े), 5. कृतिकर्म (साधु की विनयादि क्रिया), 6. वतवान्, 7. ज्येष्ठ सद्गण, 8. प्रतिक्रमी या प्रतिक्रमणी (नित्य लगने वाले दोषों का शोधन), 9. मासस्थिति (मासैकवासता या षण्मासयोगी) और 10. पद्य या दो निषद्यक (वर्षाकाल में चार मास पर्यन्त एक स्थान पर निवास)- ये आचार्य के दश स्थितिकल्प बतलाए गए हैं। बारह तप 1. अनशन, 2. अवमोदर्य (भूख से कम खाना), 3. रसपरित्याग, 4. वृत्तिपरिसंख्यान (भिक्षाचर्या भोजनादि के समय गृह, पात्र आदि का अभिग्रह या संकल्प लेना), 5. कायक्लेश (आतापनादि से शरीर को परिताप देना), 6. विविक्तशयनासन (एकान्त निर्जन स्थान में रहना), 7. प्रायश्चित्त (अपराधप्रमार्जन), 8. विनय (गुरुजनों का आदर तथा दर्शन-ज्ञान आदि में बहुमान), 9. वैयावृत्य (गुरु आदि की परिचर्या), १०.स्वाध्याय, 11. ध्यान (चित्तवृत्तिनिरोध) और १२.व्युत्सर्ग (त्याग, निःसंगता, अनासक्ति)। इनमें प्रथम छ: बाह्यतप कहलाते हैं और अन्तिम छ: आभ्यन्तर-तप। ये बारह तप सभी साधुओं के लिए यथाशक्ति अवश्य करणीय हैं। इनमें आभ्यन्तर तपों की प्रधानता है। छह आवश्यक 1. सामायिक (समता), 2. चतुर्विंशतिस्तव, 3. वन्दना, 4. प्रतिक्रमण (पाप-प्रक्षालन), 5. प्रत्याख्यान (अशुभ-प्रवृत्तियों का त्याग) और 6. कायोत्सर्ग (शरीर से ममत्वत्याग)-ये छह आवश्यक सभी साधुओं को प्रतिदिन करणीय हैं। आचार्य के अन्य गुणों की चर्चा साधु के मूलगुण- उत्तरगुण-प्रकरण में करेंगे क्योंकि आचार्य मूलतः साधु है, अतएव उसमें साधु के सामान्य गुणों का होना आवश्यक है। आचार्य 'दीक्षागुरु' के रूप में जब कोई व्यक्ति साधु बनकर साधु-संघ में आना चाहता है तो आचार्य प्रथमतः उसकी परीक्षा करके यह पता लगाते हैं कि वह साधु बनने की योग्यता रखता है या नहीं। इसके बाद अनकलता देखकर साध बनने वाले के मातापिता आदि की तथा अन्य व्यक्तियों की सम्मति लेकर आचार्य उसे दीक्षा देते हैं। दीक्षा देने के कारण उसे 'दीक्षागुरु' कहते हैं। जैसा कि कहा है तृतीय अध्याय : गुरु (साधु) 57 लिङ्ग-धारण (मुनि-दीक्षा) करते समय जो निर्विकल्प सामायिक संयम का प्रतिपादन करके शिष्य को प्रव्रज्या देते हैं वे आचार्य 'दीक्षागुरु' कहलाते हैं। दीक्षागुरु ज्ञानी और सही अर्थों में वीतरागी होना चाहिए। यदि ऐसा दीक्षागुरु नहीं होगा तो उससे अभीष्ट मोक्ष फल नहीं मिलेगा। शुद्धात्मा के उपदेश से शून्य अज्ञानी छदास्थों से जो दीक्षा लेते हैं वे पुण्यादि का फल तो प्राप्त कर लेते हैं, परन्तु आत्यन्तिक दुःखनिवृत्तिरूप मोक्ष नहीं प्राप्त करते। अतएव सही दीक्षागुरु से ही दीक्षा लेनी चाहिए। आर्यिकाओं का गणधर आचार्य कैसा हो? उत्तम क्षमादि-धर्मप्रिय, दृढ़धर्मा, धर्महर्षी, पापभीरु, सर्वतःशुद्ध (अखण्डित आचरणयुक्त), उपकारकुशल, हितोपदेशी, गम्भीर, परवादियों से न दबने वाला, मितभाषी, अल्पविस्मयी, चिरदीक्षित तथा आचार-प्रायश्चित्तादि ग्रन्थों का ज्ञाता आचार्य आर्यिकाओं का गणधर होता है। यदि आचार्य इन गुणों से युक्त न होगा तो गच्छ आदि की विराधना होगी। बालाचार्य असाध्य रोगादि को देखकर जब आचार्य अपनी आयु की अल्पता का अनुभव करता है तो अपने शिष्यों में से अपने समानगुण वाले किसी योग्यतम 1. लिंगग्गहणे तेसिं गुरु त्ति पव्वज्जदायगो होदि। -प्र. सा. 210 लिङ्गग्रहणकाले निर्विकल्पसामायिकसंयमप्रतिपादकत्वेन या किलाचार्यः प्रव्रज्यादायका स गुरुः। -प्र. सा., त. प्र. 210 योऽसौ प्रव्रज्यादायका स एव दीक्षागुरुः। -प्र. सा., ता. वृ. 210/284/12 2. छदुमत्थविहिदवत्थुसु वदणियमच्छयणझाणदाणरदो। ण लहदि अपुणब्भावं सादप्पगं लहदि।। -प्र. सा. 256 ये केचन निक्षयव्यवहारमोक्षमार्ग न जानन्ति, पुण्यमेव मुक्तिकारण भणन्ति ते छद्मस्थशब्देन गृह्यन्ते, न च गणधरदेवादयः। तैश्छद्मस्थैरज्ञानिभिः शुद्धात्मोपदेशशून्यैर्य दीक्षितास्तानि छमस्थविहितवस्तूनि भण्यन्ते। -प्र. सा., ता. वृ., 256/349/15 3. पियधम्मो ददधम्मो संविग्गोऽवज्जभीरु परिसुद्धो। संगहणुग्गहकुसलो सर्द सारक्खणाजुत्तो।। -मू. आ. 183 गभीरो दुद्धरिसो मिदवादी अप्पकोदुहल्लो या चिरपव्वइ गिहिदत्थो अज्जाणं गणधरो होदि।। -मू. आ. 184 तथा देखें, -मू. आ. 185