________________ X 52 देव, शास्त्र और गुरु वाले को भी निर्यापकाचार्य कहते हैं। जो आचार्य तो नहीं है, परन्तु विशेष परिस्थितियों में आचार्य के कार्यों को करता है उसे 'एलाचार्य' कहते हैं। इसी तरह कार्यानुसार साधुओं में पदगत भेद किया जाता है किन्तु वास्तविक भेद नहीं है। साधुओं के सामान्य स्वरूप के पूर्व उनके पदगत परिचय को अल्पविषय होने से प्रथमतः दे रहे हैंआचार्य साधु बनने के इच्छुक लोगों का परीक्षण करके उन्हें दीक्षा देने वाला, उनको शिक्षा देने वाला, उनके दोषों का निवारण करने वाला तथा अन्य अनेक गुणों से विशिष्ट संघनायक साधु आचार्य कहलाता है। लोक में गृहस्थों के धर्मकर्मसम्बन्धी विधि-विधानों को कराने वाले गृहस्थाचार्य तथा पूजा-प्रतिष्ठा आदि को कराने वाले प्रतिष्ठाचार्य' यहाँ अभीष्ट नहीं हैं, क्योंकि वे गृहस्थ हैं, मुनि नहीं। साधुरूपधारी आचार्य ही गुरु हैं और वही पूज्य हैं, अन्य नहीं। सामान्य स्वरूप आचार्य पद पर प्रतिष्ठित साधु पाँच प्रकार के आचार (दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य) का स्वयं निरतिचार पालन करता है, अन्य साधुओं से उस आचार का पालन करवाता है, दीक्षा देता है, व्रतभंग होने पर प्रायश्चित्त कराता है। इस 1. देसकुलजाइसुद्धो णिरुवम-अंगो विसुद्धसम्मत्ते। पढमाणिओयकुसलो पईहालक्खणविहिविदण्णू।। सावयगुणोववेदी उवासयज्झयणसत्थथिरबुद्धि। एवं गुणो पइट्ठाइरिओ जिणसासणे भणिओ।। - वसुनंदि-श्रावकाचार 388, 389 अर्थ- जो देश-कुल-जाति से शुद्ध हो, निरुपम अंग का धारक हो, विशुद्ध सम्यग्दृष्टि हो, प्रथमानुयोग में कुशल हो, प्रतिष्ठा की लक्षण-विधि का ज्ञाता हो, श्रावक के गुणों से युक्त हो तथा जो उपासकाध्ययन (श्रावकाचार) शास्त्र में स्थिरबुद्धि हो वही जिनशासन में 'प्रतिष्ठाचार्य' कहा गया है। २.आयारं पञ्चविहं चरदि चरावेदि जो णिरदिचारं। उवदिसदि य आयारं एसो आयारवं णाम।। - भ. आ. 419 सदा आयारविद्दण्हू सदा आयरियं चरे। आयारमायारवंतो आयरिओ तेण उच्चदे।। जम्हा पञ्चविहाचारं आचरंतो पभासदि। आयरियाणि देसंतो आयरिओ तेण उच्चदे।। -मू आ. 509-510 तृतीय अध्याय : गुरु (साधु) 53 प्रकार आचार्य साधुसंघ का प्रमुख होता है और आत्मसाधना के कार्यों में सदा सावधान रहता है। संघ-संचालन का कार्य वह कर्तव्य समझ कर करता है, उसमें विशेष रुचि नहीं रखता। जब कोई व्रती अपने आत्मिक कार्यों में प्रमादी होने लगता है तो वह उसे आदेश पूर्वक प्रमाद छोड़ने को कहता है। अव्रती को कोई आदेश नहीं करता। यद्यपि उपदेश सभी को देता है, फिर भी न तो हिंसाकारी आदेश करता है और न उपदेश।' गौणरूप से दान-पूजा आदि का उपदेश दे सकता है। आस्रव के कारणभूत सभी प्रकार के उपदेशों से वह अपने को बचाता है। असंयमी पुरुषों के साथ सम्भाषण आदि कभी नहीं करता, क्योंकि जो ऐसा करता है वह न तो आचार्य हो सकता है और न अर्हन्तमत का अनुयायी। _ 'आचार्य संघ का पालन-पोषण करता है' ऐसा कथन मिथ्या है, क्योंकि मुनिजीवन भरण-पोषण आदि के भार से सर्वथा मुक्त होता है। आचार्य धर्म के आदेश और उपदेश के सिवा अन्य कार्य नहीं करता है और यदि वह मोह या प्रमादवश लौकिकी-क्रियाओं को करता है तो वह उतने काल तक न तो आचार्य है और न व्रती। पंचविधमाचारं चरन्ति चारयतीत्याचार्याः। -ध. 1/1.1.1/48/8 पञ्चस्वाचारेषु ये वर्तन्ते परांश्च वर्तयन्ति ते आचार्याः।-भ. आ., वि. 46/154/12 पञ्चाचारं परेभ्यः स आचारयति संयमी।। अपि छिन्ने व्रते साधोः पुनः सन्धानमिच्छतः। तत्समादेशदानेन प्रायश्चित्तं प्रयच्छति। - पं. अ., उ. 645, 646. 1. न निषिद्धस्तदादेशो गृहिणां व्रतधारिणाम्। दीक्षाचार्येण दीक्षेव दीयमानास्ति तत्क्रिया।। स निषिद्धो यथाम्नायादवतिनां मनागपि। हिंसकश्चोपदेशोऽपि नोपयुज्योऽत्र कारणात्।। मुनिव्रतधराणां वा गृहस्थव्रतधारिणाम्। आदेशश्चोपदेशो वा न कर्तव्यो वधाश्रितः। --पं. आ., उ. 648-650 यद्वादेशोपदेशौ स्तो तौ द्वौ निरवद्यकर्मणि। यत्र सावधलेशोऽस्ति तत्रादेशो न जातुचित्।। - पं. अ., उ. 654 2. न निषिद्धः स आदेशो नोपदेशो निषेधितः। नूनं सत्पात्रदानेषु पूजायामर्हतामपि।। -पं. अ., उ. 653 ३.सहासंयमिभिर्लोकः संसर्ग भाषणं रतिम्।। कुर्यादाचार्य इत्येके नासौ सूरिन चार्हतः।। -पं. अ, उ, 655 4. संघसंपोषक: सूरिः प्रोक्तः कैश्चिन्मतेरिह। धर्मोपदेशोपदेशाभ्यां नोपकारोऽपरोऽस्त्यतः।। - पं. अ., उ. 656 5. देखें, पृ. 47 टि. 1.