________________ 48 देव, शास्त्र और गुरु लोभ-भय का त्याग करने वाले गुरु कहे जाते है। आचार्य आदि तीनों परमेष्ठी गुरु श्रेणी में आते हैं। सिद्ध तथा अर्हन्त अवस्था को प्राप्त करने से पूर्व सभी मुनि (छठे गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थानवर्ती मुनि) गुरु कहलाते हैं क्योंकि ये सभी मुनि नैगम नय की अपेक्षा से अर्हन्त तथा सिद्ध अवस्थाविशेष को धारण कर सकते हैं। देवस्थानीय अर्हन्त और सिद्ध को छोड़कर गरु का यद्यपि सामान्यरूप से एक ही प्रकार है परन्तु विशेष अपेक्षा से वह तीन प्रकार का है-- आचार्य, उपाध्याय और साधु। जैसे अग्नित्व सामान्य से अग्नि एक प्रकार की होकर भी तृणाग्नि, पत्राग्नि, काष्ठाग्नि आदि भेद वाली होती है। प्रस्तुत अध्याय में इन तीनों प्रकार के गुरुओं की अभेदरूप से तथा पृथक् पृथक् विवेचना की जायेगी। संयमी साधु से भिन्न की गुरु संज्ञा नहीं विषयभोगों में जिनकी आसक्ति है तथा जो परिग्रह को धारण करते हैं वे संसार में उलझे रहने के कारण गुरु नहीं हो सकते, क्योंकि जो स्वयं का उद्धार नहीं कर सकते हैं वे अन्य का उद्धार कैसे कर सकते हैं? 3 अतएव असंयत मिथ्यादृष्टि साधु वन्दनीय नहीं हैं। जो मोहवश अथवा प्रमादवश जितने काल तक लौकिक-क्रियाओं को करता है वह उतने काल तक आचार्य (गुरु) नहीं है तृतीय अध्याय : गुरु (साधु) तथा अन्तरङ्ग में व्रतों से भी च्युत है। इस तरह मिथ्यादृष्टि और सदोष साधु गुरु कहलाने के योग्य नहीं हैं। जो ज्ञानवान् तथा उत्तम चारित्रधारी हैं उन गुरुओं के वचन सन्देहरहित होने से ग्राह्य हैं। जो ज्ञानवान् और उत्तम चारित्रधारी नहीं हैं उनके वचन सन्देहास्पद होने से स्वीकार के योग्य नहीं हैं। जो तप, शील, संयमादि को धारण करने वाले हैं वे ही साक्षात् गुरु हैं तथा नमस्कार करने के योग्य है, इनसे भिन्न नहीं।। निश्चय से अपना शुद्ध आत्मा ही गुरु है 'गुरु' का अर्थ है जो तारे = भवसागर से पार लगाये। निश्चय से अपना आत्मा ही स्वयं को तारता है; अर्हन्तादि उसमें निमित्त हैं। इस तरह उपादान कारण की दृष्टि से अपना शुद्ध-आत्मा ही गुरु है। जैसा कि कहा है (क) 'अपना आत्मा ही गुरु है क्योंकि वही सदा मोक्ष की अभिलाषा करता है, मोक्षसुख का ज्ञान करता है तथा उसकी प्राप्ति में अपने को लगाता है।" (ख) आत्मा ही देहादि में ममत्व के कारण] जन्म-मरण को तथा [ममत्वत्याग के कारण] निर्वाण (मोक्ष) को प्राप्त करता है। अतः निश्चय (परमार्थ) से आत्मा का गुरु आत्मा ही है, अन्य नहीं।५ अर्हन्त, आचार्य आदि सम्यग्दर्शन में निमित्त होने से व्यवहार नय से गुरु हैं। यहाँ ऐसे गुरुओं का ही विचार अपेक्षित है, अन्यथा आत्मस्वरूप को पहचानना कठिन है। (ग) यह आत्मा अपने ही द्वारा संसार या मोक्ष को करता है। अतएव स्वयं ही अपना शत्रु और गुरु भी है। 1. यद्वा मोहातामादाद्वा कुर्याद्यो लौकिकी क्रियाम्। तावत्कालं स नाचार्योऽप्यस्ति चान्तव्रताच्च्युतः।। -पं० अ० उ. 657 2. ये ज्ञानिनश्चारुचारित्रभाजो ग्राह्या गुरूणां वचनेन तेषाम्। संदेहमत्यस्य बुधेन धर्मों विकल्पनीयं वचनं परेषाम्।। -अमितगति श्रावका० 1.43 3. इत्युक्तव्रततपशीलसंयमादिधरो गणी। नमस्यः स गुरुः साक्षादन्यो न तु गुरुर्गणी।। -पं.अ., उ, 658 ४.स्वस्मिन् सदाभिलाषित्वादभीष्टज्ञापकत्वतः। __स्वयं हि प्रयोक्तृत्वादात्मैव गुरुरात्मनः।। -इष्टोपदेश 34 5. नयत्यात्मानमात्मैव जन्म निर्वाणमेव च। गुरुरात्मात्मनस्तस्मानान्योऽस्ति परमार्थतः।। -समाधि-शतक 75 6. आत्मात्मना भवं मोक्षमात्मनः कुरुते यतः। अतो रिपुर्गुरुश्चायमात्मैव स्फुटमात्मनः / / - ज्ञानार्णव 32/81 1. पञ्चमहाव्रतकलितो मदमथनः क्रोधलोभभयत्यक्तः। एष गुरुरिति भण्यते तस्माज्जानीहि उपदेशम्।। -ज्ञानसार 5 2. तेभ्योऽर्वागपि छद्मस्थरूपास्तद्रूपधारिणः। गुरवः स्युर्गुरोर्यायान्नान्योऽवस्थाविशेषभाक्।। 621 अथास्त्येकः स सामान्यात्सद्विशेष्यस्त्रिधा मतः। एकोऽप्यग्निर्यथा तायः पाण्यों दाळस्त्रिधोच्यते।। 637 आचार्यः स्यादुपाध्यायः साधुश्चेति त्रिधा मतः। स्युर्विशिष्ट पदारूढास्त्रयोऽपि मुनिकुञ्जराः।। -पं.अ.,3. 638 3. रत्नकरण्ड-श्रावकाचार, टीका (पं. सदासुखदास) 1/10 4. तं सोऊण सकपणे दंसणहीणो ण वंदियो।। -दर्शनपाहुड,२ असंजदं ण वंदे वच्छविहीणो वि तो ण वंदिज्ज। दोण्णि वि होति समाणा एगो वि ण संजदो होदि।। -दर्शनपाहुड, 26 कुलिङ्गिनः कुदेवाश्च न वन्द्यास्तेऽपि संयतैः। -अन.ध. 7/52