Book Title: Dev Shastra Aur Guru
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad

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Page 24
________________ 31 देव, शास्त्र और गुरु कसायपाहुड, छक्खण्डागम आदि श्रुतावतार दिगम्बर श्रुतधराचायों की परम्परा में गुणधर और धरसेन श्रुतप्रतिष्ठापक | के रूप में प्रसिद्ध हैं। गुणधराचार्य (वि०पू० प्रथम शताब्दी) को पञ्चम पूर्वगत 'पेज्जदोसपाहुड' तथा 'महाकम्मपयडिपाहुड' का ज्ञान प्राप्त था। उन्होंने कसायपाहुड (अपर नाम पेज्जदोसपाहुड) ग्रन्थ की रचना 180 गाथाओं में की है। 'पेज्ज' का अर्थ है 'राग' / अत: इस ग्रन्थ में राग-द्वेष रूप कषायों से सम्बन्धित विषय का निरूपण किया गया है। आचार्य गुणधर को दिगम्बर परम्परा में लिखित श्रुतग्रन्थ का प्रथम श्रुतकार माना गया है। आचार्य धरसेन ने यद्यपि किसी ग्रन्थ की रचना नहीं की परन्तु उन्हें पूर्वगत 'कम्मपयडिपाहुड' का ज्ञान प्राप्त था। छक्खंडागम (षट्खण्डागम) विषय के ज्ञाता धरसेनाचार्य ने महिमा नगरी में सम्मिलित हुए दक्षिणपथ के आचार्यों के पास अङ्गश्रुत के विच्छेद की आशंका से एक पत्र लिखकर इच्छा व्यक्त की 'कोई योग्य शिष्य मेरे पास आकर षट्खण्डागम का अध्ययन करें'। उस समय आचार्य धरसेन (ई०सन् 73 के आसपास) सौराष्ट्र देश के गिरिनगर (ऊर्जयन्त) नामक नगर की चन्द्रगुफा में रहते थे। पत्र-प्राप्ति के बाद दक्षिण से दो योग्य मुनि पुष्पदन्त और भूतबलि ने आकर उनसे अध्ययन किया। पश्चात् पुष्पदन्त ने छक्खण्डागम ग्रन्थ के प्रारम्भिक सत्प्ररूपणासूत्रों (बीसदि सुत्त = प्रथम खण्ड के 177 सूत्रों) को बनाया। पुष्पदन्त का स्वर्गवास हो जाने पर शेष सूत्रों की रचना भूतबलि ने की। छक्खण्डागम छः खण्डों में विभक्त है- जीवट्ठाण, खद्दाबन्ध, बंधसामित्तविचय, वेयणा, वग्गणा और महाबंध। आचार्य वीरसेन (ईसा की ८-९वीं शताब्दी) ने इन दोनों ग्रन्थों पर विशाल धवला (षट्खण्डागमटीका) और जयधवला (कषायप्राभृत टीका) टीकायें लिखीं हैं। इसके बाद आचार्य आर्यमंक्षु और नागहस्ति (ई. प्रथम शताब्दी) के क्रम से चूर्णिकार यतिवृषभाचार्य (ई०सन् 176 के आसपास) ने कसायपाहुड पर चूर्णिसूत्र लिखे तथा तिलोयपण्णत्ति नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ की स्वतन्त्र रचना की। इसी क्रम में युगसंस्थापक आचार्य कुन्दकुन्द का नाम आता है जिन्होंने श्रुतस्कन्ध की रचना की तथा जिनके नाम से उत्तरवर्ती दिगम्बर-परम्परा 'कुन्दकुन्दाम्नाय' के नाम से प्रसिद्ध हुई। आचार्य 'कुन्दकुन्द' गुणधर, धरसेन, पुष्पदंत और भूतबली से पूर्ववर्ती हैं या समसमयवर्ती हैं या परवर्ती हैं, विद्वानों में मतैक्य नहीं है। डाँ देवेन्द्र कुमार जी कुन्दकुन्द को गुणधर के बाद और धरसेन के पूर्व सिद्ध द्वितीय अध्याय : शास्त्र (आगम-ग्रन्थ) करते हैं। मूलसंघ की प्रतिष्ठापना यद्यपि आचार्य अर्हद्वलि के समय में ही हो गई थी परन्तु आचार्य कुन्दकुन्द के द्वारा मूलसंघ की प्रतिष्ठा बढ़ी। इसीलिए उत्तरवर्ती मूलसंघ परम्परा कुन्दकुन्दाम्नाय के नाम से प्रसिद्ध हुई। मूल आगम (अनुपलब्ध) आगम दो प्रकार के हैं- 1. अङ्ग (अङ्गप्रविष्ट) तथा 2. अङ्गबाह्य। गणधर-प्रणीत आचाराङ्ग आदि अङ्ग-प्रविष्ट ग्रन्थ कहलाते हैं। गणधर देव के शिष्य-प्रशिष्यों के द्वारा अल्प आयु-बुद्धि-बल वाले प्राणियों के लिए अङ्ग ग्रन्थों के आधार पर रचे गए संक्षिप्त ग्रन्थ अङ्गबाह्य कहलाते हैं। जैसे (क) अङ्ग के बारह भेद- 1. आचार, 2. सूत्रकृत, 3. स्थान, 4. समवाय, ५.व्याख्याप्रज्ञप्ति, 6. ज्ञातृधर्मकथा, 7. उपासकाध्ययन, 8. अन्तकृद्दश, 9. अनुत्तरोपपादिकदश, १०.प्रश्नव्याकरण, 11. विपाकसूत्र और 12. दृष्टिवाद। इसमें दृष्टिवाद के पाँच भेद हैं- परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका। पूर्वगत के चौदह भेद हैं- उत्पादपूर्व, अग्रायणीय, वीर्यानुवाद, अस्तिनास्तिप्रवाद, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्याननामधेय, विद्यानुवाद, कल्याणनामधेय, प्राणावाय, क्रियाविशाल और लोकबिन्दुसार। चूलिका के पाँच भेद हैं- जलगता, स्थलगता, आकाशगता, रूपगता और मायागता। (ख) अङ्गबाह्य के चौदह भेद (अर्थाधिकार)- 1. सामायिक, 2. चतुर्विंशतिस्तव, 3. वन्दना, 4. प्रतिक्रमण, 5. वैनयिक, 6. कृतिकर्म, 7. दशवैकालिक, 8. उत्तराध्ययन, 9. कल्पव्यवहार, १०.कल्प्याकल्प्य, 11. महाकल्प, 12. पुण्डरीक, 13. महापुण्डरीक और 14. निषिद्धिका। कालिक और उत्कालिक के भेद से अङ्गबाह्य अनेक प्रकार के हैं। जिनके पठन-पाठन का निश्चित (नियत) काल है उन्हें कालिक और जिनके पठन-पाठन का निश्चित काल नहीं है उन्हें उत्कालिक कहते हैं।" 1. श्रुतं मतिपूर्व द्वयनेकद्वादशभेदम् / - त०सू० 1.20 तथा स०सि० टीका। 2. यद्गणधर-शिष्यप्रशिष्यैरारातीयैरधिगतनुतार्थतत्त्वैः कालदोषादल्पमेधायुर्बलानां प्राणिनामनु___ ग्रहार्थमुपनिबद्धं संक्षिप्ताङ्गार्थवचनविन्यासं तदङ्गबाह्यम्। - रा०वा०, 1/20/72/25. 3. स०सि०, 1/20, रा०वा०, 1/20. 4. वही, तथा देखें, गो०जी०, 367-368/789. 5. तदङ्गबाह्यमनेकविधम् - कालिकमुत्कालिकमित्येवमादिविकल्पात्। स्वाध्यायकाले नियतकालं कालिकम्। अनियतकालमुत्कालिकम्। -रा०वा० 1/20/14/78/6

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