Book Title: Dev Shastra Aur Guru
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 23
________________ 28 द्वितीय अध्याय : शास्त्र (आगम-ग्रन्थ) 29 साहित्य में दो प्रकार से मिलता है— १.तिलोयपण्णत्ति, हरिवंशपुराण, धवला आदि मूल ग्रन्थों में, और 2. आचार्य इन्द्रनन्दि (वि०सं०९९६) कृत श्रुतावतार में। इनसे ज्ञात होता है कि गौतम गणधर से लेकर अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी (वी०नि० के 162 वर्ष बाद) तक मूलसंघ अविच्छिन्न रूप से चलता रहा। पश्चात् ह्रास होते हुए लोहाचार्य तक एकरूप से चला। लोहाचार्य के बाद मूलसंघ का विभाजन संभवतः निम्न प्रकार हुआ लोहाचार्य अर्हदलि(गुप्तिगुप्त) गुणधर देव, शास्त्र और गुरु अपौरुषेय है। जैनागमों की रचना प्रायः सूत्रों में हुई है। पश्चात् अल्पबुद्धि वालों के लिए उनके भावों को स्पष्ट करने के लिए टीकायें आदि लिखी गई जो मूलसूत्रों के भावार्थ का प्रतिपादन करने के कारण प्रामाणिक हैं। यहाँ इतना विशेष है कि जो ग्रन्थ अनेकान्त और स्यावाद आदि सिद्धान्तों के अनुसार वीतरागता का अथवा रत्नत्रय आदि का प्रतिपादन करते हैं वे ही प्रामाणिक हैं, अन्य नहीं। शास्त्रकार ने जिस बात को जिस सन्दर्भ में कहा है, हमें उसी सन्दर्भ की दृष्टि से अर्थ करना चाहिए, अन्यथा मूलभावना (मूलसिद्धान्त) का हनन होगा, जो इष्ट नहीं है। भगवान् की वाणी भगवान् की वाणी ओंकाररूप-निरक्षरी (शब्दों से बंधी नहीं, क्योंकि अनन्त पदार्थों का कथन अक्षरात्मक वाणी से सम्भव नहीं है) रही है जो सर्वसामान्य होते हुए भी गणधर में ही उसे सही समझने की योग्यता (ज्ञान-क्षयोपशम) मानी गई है। अतः अर्हन्त्र भगवान् की वाणी गणधर की उपस्थिति में ही खिरती है। चार ज्ञानों के धारी गणधर उसे ज्ञानरूप से जानकर आचाराङ्ग आदि शास्त्रों के रूप में रचना करते हैं। मूलसंघ में बिखराव' भगवान् महावीर के निर्वाण के 62 वर्ष बाद तक गौतम (इन्द्रभूति), सुधर्मा और जम्बू ये तीन गणधर केवली हुए हैं। इन तीन केवलियों के बाद केवलज्ञानियों की परम्परा व्युच्छिन्न हो गई। पश्चात् 11 अंग और 14 पूर्वो के ज्ञाता पूर्णश्रुतकेवलियों की परम्परा अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु प्रथम (वी. नि. सं. 100 वर्ष या 162 वर्ष) तक चली। अर्थात् भद्रबाहु तक पाँच श्रुतकेवली हुए। इसके बाद क्रमिक ह्रास होते हुए ग्यारह आचार्य ग्यारह अंग और दशपूर्वधारी हुए। इसके बाद पाँच आचार्य ग्यारह अंगधारी हुए। तदनन्तर कुछ आचार्य दश, नौ और आठ अंगों के धारी हुए। इस क्रम में भद्रबाहु द्वितीय (वी.नि. 492) और उनके शिष्य लोहाचार्य हुए। इस तरह लोहाचार्य तक यह श्रुत-मरम्परा चली। इसके बाद अंगों या पूर्वो के अंशमात्र के ज्ञाता रहे। यह अंगांशधर या पूर्वाशविद् की परम्परा अर्हबलि (गुप्तिगुप्त), माघनन्दि, धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि (वी०नि०सं०६८३ वर्ष) तक चली। इस ऐतिहासिक विषय का उल्लेख दिगम्बर धरसेन माघनंदि आर्यमंक्षु पुष्पदंत जिनचन्द्र नागहस्ति भूतबली कुन्दकुन्द यतिवृषभ उमास्वामी भद्रबाहु प्रथम के समय में अवन्तिदेश में 12 वर्ष का दुर्भिक्ष पड़ा जिसके कारण इस मूलसंघ के कुछ आचार्यों में शिथिलाचार आ गया और आचार्य स्थूलभद्र (भद्रबाहु प्रथम के शिष्य) के संरक्षण में एक स्वतन्त्र श्वेताम्बर संघ की स्थापना हो गई। इस तरह जैन संघ दिगम्बर और श्वेताम्बर इन दो शाखाओं में विभाजित हो गया। दिगम्बर भद्रबाहु स्वामी की संघव्यवस्था आचार्य अर्हबलि-गुप्तिगुप्त (वी०नि०५६५-५९३) के काल में समाप्त हो गई और दिगम्बर मूलसंघ नन्दि, वृषभ आदि अवान्तर संघों में विभक्त हो गया। ऐतिहासिक उल्लेखानुसार आ० अर्हबलि ने पाँचवर्षीय युग-प्रतिक्रमण के समय (वी०नि० 575) संघटन बनाने के लिए दक्षिणदेशस्थ महिमा नगर (आन्ध्रप्रदेश का सतारा जिला) में एक महान् साधु-सम्मेलन बुलाया जिसमें 100 योजन तक के साधु सम्मिलित हुए। इस साधु-सम्मेलन में मतैक्य न होने से मूलसंघ बिखर गया। 1. देखें, जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश, भाग 1, इतिहास शब्द / परवार जैन समाज का इतिहास, पृ० 96, 109 तथा प्रस्तावना, पृ०२१-२४। भगवान् महावीर और उनकी आचार्य परम्परा। षट्खण्डागम, प्रस्तावना, डॉ. हीरालाल जैन।

Loading...

Page Navigation
1 ... 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101