Book Title: Dev Shastra Aur Guru
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad

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Page 28
________________ 38 देव, शास्त्र और गुरु आधुनिक पुरुषों के द्वारा लिखित वचनों की प्रमाणता कब? श्रुत के अनुसार व्याख्यान करने वाले आचार्यों या पुरुषों के वचन में प्रमाणता मानने में यद्यपि कोई विरोध नहीं है, फिर भी इतना अवश्य है कि अतीन्द्रिय पदार्थों के विषय में अल्पज्ञों के द्वारा किए गए विकल्पों में विरोध सम्भावित हैं। केवलज्ञान के विषयीभूत सभी पदार्थों में छद्मस्थों (अल्पज्ञों) के ज्ञान की प्रवृत्ति संभव नहीं है। अतः छद्मस्थों को यदि कोई अर्थ उपलब्ध नहीं होता है तो जिन-वचन में अप्रमाणता नहीं आती। छद्मस्थों का ज्ञान प्रमाणता का मापदण्ड नहीं है। यदि छद्मस्थों का कथन राग, द्वेष और भय से रहित आचार्य-परम्परा का अनुसरण करता हो, वीतरागता का जनक हो, अहिंसा का पोषक हो तथा रत्नत्रय के अनुकूल हो तो प्रामाणिक है, अन्यथा नहीं। प्राचीन आचार्यों के कथन में यदि बाह्यरूप से विरोध दिखलाई पड़े तो स्याद्वाद-सिद्धान्त से उसका समन्वय कर लेना चाहिए, क्योंकि आगमों में कुछ कथन निश्चयनयाश्रित हैं। कुछ विविध प्रकार के व्यवहारनयों के आश्रित हैं: कछ उत्सर्गमार्गाश्रित हैं तो कुछ अपवादमाश्रित हैं। पौरुषेयता अप्रमाणता का कारण नहीं, जैनागम कथंचित् अपौरुषेय तथा नित्य हैं ____ 'अपौरुषेयता प्रमाणता का कारण है और पौरुषेयता अप्रमाणता का कारण हैं' ऐसा कथन सर्वथा असंगत है। अन्यथा चोरी आदि के उपदेश भी प्रामाणिक द्वितीय अध्याय : शास्त्र (आगम-ग्रन्थ) हो जायेंगे क्योंकि इनका कोई आदि उपदेष्टा ज्ञात नहीं है। आगम अतीत काल में था. आज है तथा भविष्य में भी रहेगा। अतएव जैन-आगम कथंचित् नित्य हैं तथा वाच्य-वाचक भाव से, वर्ण-पद-पंक्तियों के द्वारा प्रवाहरूप से आने के कारण कथंचित् अपौरुषेय भी हैं। आगम में व्याकरणादि-विषयक भूल-सुधार कर सकते हैं, प्रयोजनभूत मूलतत्त्वों में नहीं जैनागमों में शब्दों की अपेक्षा भावों का प्राधान्य माना गया है। अतः आचार्यों ने व्याकरणादि (लिङ्ग, वचन, क्रिया, कारक, सन्धि, समास, विशेष्य-विशेषण आदि) के दोष संशोधित करके भावार्थ ग्रहण करने की कामना की है। परन्तु भावरूप मूलतत्त्वों में सुधार करने की अनुमति नहीं दी है। यथार्थज्ञान होने पर भूल को अवश्य सुधारें __यथार्थ का ज्ञान होने पर अपनी भूल को अवश्य सुधार लेना चाहिए। भूल को न सुधारने पर सम्यग्दृष्टि जीव भी उसी समय से मिथ्यादृष्टि हो जाता है। 1. अप्रमाणमिदानीतना आगमः आरातीयपुरुषव्याख्यातार्थत्वादिति चेन्न, ऐदंयुगीनशानविज्ञानसंपन्नतया प्राप्तप्रामाण्यैराचाफाख्यातार्थत्वात्। कथं छद्मस्थानां सत्यवादित्वमिति चेन्न, यथाश्रुतव्याख्यातॄणां तदविरोधात्। -ध. 1/1.1.22/197/1. 2. अदिदिएसु पदत्थेसु छदुमत्ववियप्पाणमविसंवादणियमाभावादो। -ति.प. ७/६१३/पृ. 766. 3. न च केवलज्ञानविषयीकृतेष्वर्थेषु सकलेष्वपि रजोजुषां ज्ञानानि प्रवर्तन्ते येनानुपलम्भा ज्जिनवचनस्याप्रमाणत्वमुच्येत। -ध. 13/5.5.137/389/2. 4. जिणउवदिद्वतासो होदु दव्वागमोपमाणं, किन्तु अप्पमाणीभूदपुरिसपव्वोलीकमेण आगयत्तादो अप्पमाणवट्टमाणकालदव्वागमो ति ण पच्छवट्ठाईं जुत्तं, रागदोसभयादीदआयरियपन्चोलीकमेण आगयस्स अप्पमाणत्तविरोहादो। -क. पा. 1/1.15/64/82. 1. ततश पुरुषकृतित्वादप्रामाण्यं स्याद्।... न चापुरुषकृतित्वं प्रामाण्यकारणम्। चौर्यादथुपदेशस्यास्मर्यमाणकर्तृकस्य प्रामाण्यप्रसङ्गात्। अनित्यस्य च प्रत्यक्षादेः प्रामाण्ये को विरोधः। -रा.वा. 1/20/7/71/32. 2. अभूत इति भूतम्, भवतीति भव्यम्, भविष्यतीति भविष्यत्, अतीतानागत- वर्तमानकालेवस्तीत्यर्थः, एवं सत्यागमस्य नित्यत्वम्। सत्येवमागमस्यापौरुषेयत्वं प्रसजतीति चेत्, नवाच्यवाचकभावेन वर्ण-पद-पंक्तिभिश्च प्रवाहरूपेण चापौरुषेयत्वाभ्युपगमात्। -ध. 13/5.5.50/286/2. ३.णियभावणाणिमित्तं मए कदं णियमसारणां सुदं। णच्चा जिणोवदेसं पुल्वावरदोसविमुक्क।। -नि.सा. 187. अस्मिन् लक्षणशास्त्रस्य विरुद्धं पदमस्ति चेत्, लुप्त्वा तत्कवयो भद्रा कुर्वन्तु पदमुत्तमम् / -वही, क. 310. लिङ्ग-वचन-क्रिया कारक-संधि-समास-विशेष्यविशेषणवाक्यसमाप्त्यादिकं दूषणमत्र न ग्राह्य विद्वद्भिरिति। -परमात्मप्रकाश 2/214/316/2. जं कि पि एत्थ भणियं अयाणमाणेण पवयणविरुद्धं। खमिऊण पवयणधरा सोहित्ता तं पयासंतु।। - वसुनंदि श्रावकाचार 545. 4. सम्माइट्ठी जीवो उवइ8 पक्यणं तु सद्दहदि। सद्दहदि असम्भावं अजाणमाणो गुरुणियोगा।। -ध. 1/1.1.13/110/173. सुत्तादो तं सम्मं दरिसिज्जतं जदा ण सद्दहदि। सो चेय हवदि मिच्छाइट्ठी हु तदो पहुडि जीवो।। -ध.१/१.१.३७/१४३/२६२.

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