Book Title: Dev Shastra Aur Guru
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 26
________________ 34 देव, शास्त्र और गुरु आगम) हैं। आप्त के उपदेश को शब्दप्रमाण कहते हैं। शब्दप्रमाण ही श्रुत है। आगम परोक्षप्रमाण श्रुतज्ञान का एक भेद है। श्रुत या सूत्र के दो प्रकार : द्रव्यश्श्रुत और भावश्रुत श्रुत ही सूत्र है और वह सूत्र भगवान् अर्हन्त सर्वज्ञ के द्वारा उपदिष्ट स्यात्कार चिह्नयुक्त प्रौद्गलिक शब्दब्रह्म है।" परिच्छित्तिरूप भावश्रुत = ज्ञानसमय को सूत्र कहते हैं। अर्थात् वचनात्मक द्रव्यश्रुत कहलाता है और ज्ञानात्मक भावश्रुत कहलाता है। वास्तव में भावश्रुत ही श्रुत-ज्ञान है, द्रव्यश्रुत श्रुतज्ञान नहीं। भाव का ग्रहण ही आगम है। शब्दात्मक होने से द्रव्यश्रुत को श्रुत कहते हैं। द्रव्यश्रुतरूप आगम को श्रुतज्ञान उपचार से (कारण में कार्य का उपचार करने से) कहा जाता है क्योंकि द्रव्यश्रुतरूप आगम के अभ्यास से श्रुतज्ञान तथा संशयादिरहित निश्चल परिणाम होता है। 1. रागद्वेषमोहाक्रान्तपुरुषवचनाज्जातमागमाभासम्। यथा नधास्तीरे मोदकराशयः सन्ति, धावध्वं माणवका: अंगुल्यग्रहस्तियूथशतमस्ति इति च विसंवादात्। -प.मु.६५१-५४/६९. 2. आप्तोपदेशः शब्दः। - न्यायदर्शनसूत्र 1/1/7/15. 3. शब्दप्रमाणं श्रुतमेव। - रा०वा०, 1/20/15/78/18. 4. गो०जी० 313. 5. श्रुतं हि तावत् सूत्र। तच्च भगवदर्हत्सर्वज्ञोपज्ञं स्यात्कारकेतनं पौद्गलिकम् शब्दब्रह्म। -प्र०सा०, त०प्र० 34. 6. सूत्रं परिच्छित्तिरूपं भावश्रुतं ज्ञानसमय इति। -स०सा०, ता०वृ०१५. 7. ण च दव्वसुदेण एत्थ अहियारो, पोग्गलवियारस्स जडस्स णाणोपलिङ्गभूदस्स सुदत्त विरोहादो। -ध. 13/5.4.26/64/12. 8. आप्तवाक्यनिबन्धनज्ञानमित्युच्यमानेऽपि आप्तवाक्यकर्मके श्रावणप्रत्यक्षेऽतिब्याप्तिः। तात्पर्यमेव वचसीत्यभियुक्तवचनात्। -न्यायदीपिका 3/73. 9. कथं शब्दस्य तत्स्थापनायाश्च श्रुतव्यपदेशः। नैष दोषः, कारणे कार्योपचारात्। -ध. 9/4.1.45/162/3.. श्रुतभावनायाः फलं जीवादितत्त्वविषये संक्षेपेण हेयोपादेयतत्त्वविषये वा संशयविमोहविभ्रमरहितो निचलपरिणामो भवति। - पञ्चास्तिकाय, ता.वृ. 173/254/19 श्रवणं हि श्रुतज्ञानं, न पुनः शब्दमात्रकम्। तच्चोपचारतो ग्राह्य श्रुतशब्दप्रयोगतः। -श्लोकवार्तिक 1/1/20/2-3. द्वितीय अध्याय : शास्त्र (आगम-ग्रन्थ) श्रुत तथा आगमज्ञान के अतिचार शास्त्र को पढ़ना मात्र स्वाध्याय नहीं है, अपितु द्रव्यशुद्धि, क्षेत्रशुद्धि, कालशुद्धि और भावशुद्धि का भी ध्यान रखना चाहिए। इन शुद्धियों के बिना शास्त्र का पढ़ना 'श्रुतातिचार' कहलाता है। इसी प्रकार अक्षर, पद, वाक्य आदि को कम करना, बढ़ाना, पीछे का सन्दर्भ आगे लाना, आगे का सन्दर्भ पीछे ले जाना, विपरीत अर्थ करना, ग्रन्थ एवं अर्थ में विपरीतता करना ये सब 'ज्ञानातिचार' हैं। अर्थात् शास्त्र का अर्थ सही ढङ्ग से करना चाहिए। उसमें थोड़ा सा भी उलटपुलट करने से अर्थ का अनर्थ हो सकता है। श्रुतादि का वक्ता कौन? केवली भगवान के द्वारा उपदिष्ट तथा अतिशय बुद्धि-ऋद्धि के धारक गणधर देवों के द्वारा जो धारण किया गया है उसे 'श्रुत' कहते हैं। इस तरह श्रुत या सूत्र अर्थतः जिनदेव-कथित ही हैं परन्तु शब्दता गणधर-कथित वचन भी सूत्र के समान हैं। प्रत्येकबुद्ध आदि के द्वारा कथित वचनों में भी सूत्रता पाई जाती है। इसी प्रसङ्ग से कसायपाहुडकार की गाथाओं में भी सूत्रता है। यद्यपि उनके कर्ता गुणधर भट्टारक न गणधर हैं, न प्रत्येक बुद्ध हैं, न श्रुतकेवली हैं और न अभिन्नदशपूर्वी हैं, फिरभी गुणधर भट्टारक की गाथाओं में निर्दोषत्व, अल्पाक्षरत्व और सहेतुकत्व पाया जाने से सूत्रत्व मान्य है। 1. द्रव्यक्षेत्रकालभावशुद्धिमन्तरेण श्रुतस्य पठनं श्रुतातिचास। -भ. आ., वि. 16/62/15. 2. अक्षरपदादीनां न्यूनताकरणं, अतिवृद्धिकरणं, विपरीतपौर्वापर्यरचनाविपरीतार्थनिरुपणा ग्रन्थार्थयोर्वपरीत्यं अमी ज्ञानातिचाराः। -भ, आ., वि. 16/62/15. " 3. तदुपदिष्टं बुद्ध्यतिशयर्दियुक्तगणधरावधारितं श्रुतम्। -रा. वा. 6/13/2/523/29. 4. एदं सव्वं पि सुत्तलक्खणं जिणवयणकमलविणिग्गय-अत्थपदाणं चेव संभवई, ण गणहरमुहविणिग्गयगंथरयणाए, तत्थ महापरिमाणत्तुवलंभादो, ण, सुत्तसारिच्छमस्सिदूण। -क. पा. 1/1.15/120/154. ..: 5. सुत्तं गणहरगधिदं तहेव पत्तेयबद्धकहियं च।। सुदकेवलिणा कहियं अभिण्णदसपुचिगधिदं च।। - भ. आ. 34 तथा मूलाचार 277. 6. णेदाओ गाहाओ सुत्तं गणहर - पत्तेयबुद्ध-सुदकेवलि-अभिण्णदसपुव्वीसु गुणहरभडारस्स अभावादो, ण णिहोसपक्खरसहेउपताणेहि सुत्तेण सरिसत्तममस्थित्ति गुणहराइरियगाहाणं पि सुत्तत्तुवलंभादो। ......एवं सव्वं पि सुत्तलक्खणं जिणवयणकमलविणिग्गयअत्थपदाणं चेव संभवइ, ण गणहरमुहविणिग्गयगंथरयणाए, ण सच्च (सुत्त) सारिच्छमस्सिदूण तत्थ वि सुत्तत्तं पडिविरोहाभावादो। -क०पा०, जयधवला 1/1/119-120, '

Loading...

Page Navigation
1 ... 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101