Book Title: Dev Shastra Aur Guru
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad

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Page 25
________________ देव, शास्त्र और गुरु अङ्ग और अङ्गबाह्य ग्रन्थों की विषयवस्तु आदि इन अङ्ग और अङ्गबाह्य ग्रन्थों की उपलब्धता, विषयवस्तु, नाम आदि के सन्दर्भ में दिगम्बर और श्वेताम्बर मान्यताओं में कुछ मतभेद हैं। श्वेताम्बर मान्यतानुसार दृष्टिवाद को छोड़कर शेष ग्यारह अङ्ग ग्रन्थ तथा उत्तराध्ययन आदि अङ्गबाह्य ग्रन्थ आज भी संग्रहरूप में उपलब्ध हैं, परन्त दिगम्बर मान्यतानुसार ये सभी ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं। दिगम्बर मान्यतानुसार छक्खण्डागम और कसायपाहुड ये दो प्राचीन ग्रन्थ उपलब्ध हैं जो पूर्वो के आधार पर लिखे गए हैं।' अङ्ग और अङ्गबाह्य ग्रन्थों की दिगम्बर मान्यतानुसार विषयवस्तु आदि से सम्बन्धित जानकारी राजवार्तिक आदि ग्रन्थों से जानी जा सकती है। आगम का सामान्य स्वरूप आगम, सिद्धान्त और प्रवचन ये तीनों पर्यायवाची शब्द हैं। आगम के स्वरूप के सम्बन्ध में निम्न उल्लेख ध्यातव्य हैं(१) उन तीर्थङ्करों के मुख से निकली हुई वाणी जो पूर्वापर दोष से रहित हो और शुद्ध हो उसे 'आगम' कहते हैं। आगम को ही 'तत्त्वार्थ' कहते हैं।' (2) जो आप्त के द्वारा कहा गया हो, वादी-प्रतिवादी के द्वारा अखण्डित हो, प्रत्यक्षादि प्रमाणों से अविरुद्ध हो, वस्तुस्वरूप का प्रतिपादक हो, सभी का हितकारक हो तथा मिथ्यामार्ग का खण्डन करने वाला हो, वही सत्यार्थ शास्त्र है। (3) जिसके सभी दोष नष्ट हो गए हैं. ऐसे प्रत्यक्षज्ञानियों (सर्वज्ञों = केवलियों) के द्वारा प्रणीत शास्त्र ही आगम हैं, अन्यथा आगम और अनागम में कोई भेद नहीं हो सकेगा। 1. विशेष के लिए देखें, मेरा लेख 'अङ्ग आगमों के विषय-वस्तु-सम्बन्धी उल्लेखों का तुलनात्मक अध्ययन/- एस्पेक्ट्स ऑफ जैनोलॉजी, वाल्यूम 3. 2. विशेष के लिए देखें, वही तथा राजवार्तिक (1.20), धवला, हरिवंशपुराण, गो०जीवकाण्ड आदि। 3. आगमो सिद्धंतो पवयणमिदि एयट्ठो। -ध०१/१.१.१/२०/७. 4. तस्स मुहग्गदवयणं पुव्वावरदोसविरहियं सुद्ध। आगमिदि परिकहियं तेण दु कहिया हवंति तच्चत्था।। -नि०सा० 8. 5. आप्तोपशमनुल्लयमदृष्टेविरोधकम्। तत्त्वोपदेशकृत्सा शास्त्र कापथघट्टनम्।। -200 9. 6. आप्तेन हि क्षीणदोषेण प्रत्यक्षज्ञानेन प्रणीत आगमो भवति, न सर्वः। यदि सर्वः स्यात्, अविशेषः स्यात्। -रा०वा०, 1/12/7/54/8. तृतीय अध्याय : गुरु (साधु) (4) पूर्वापर-विरोध आदि दोषों से रहित तथा समस्त पदार्थ-प्रतिपादक आप्तवचन को आगम कहते हैं। अर्थात् आप्त के वचन को आगम जानना चाहिए। जन्म-जरा आदि अठारह दोषों से रहित को आप्त कहते हैं। ऐसे आप्त के द्वारा असत्य वचन बोलने का कोई कारण नहीं है। (5) आप्त-वचन आदि से होने वाले पदार्थज्ञान को आगम कहते हैं। (6) जिसमें वीतरागी सर्वज्ञ के द्वारा प्रतिपादित भेद-रत्नत्रय (षड्द्रव्य-श्रद्धान, सम्यग्ज्ञान तथा व्रतादि का अनुष्ठान रूप भेदरत्नत्रय) का स्वरूप वर्णित हो, उसे आगमशास्त्र कहते हैं। (7) जिसके द्वारा अनन्त धर्मों से विशिष्ट जीवादि पदार्थ समस्त रूप से जाने जाते हैं, ऐसी आप्त-आज्ञा ही आगम है, शासन है। (8) आप्त-वाक्य के अनुरूप अर्थज्ञान को आगम कहते हैं। इन सन्दर्भो से स्पष्ट है कि आगम वही है, जो वीतरागी द्वारा प्रणीत हो। अतएव आगमवन्तों का जो ज्ञान होता है वह न्यूनता से रहित, अधिकता से रहित, जो रागी, द्वेषी और अज्ञानियों के द्वारा प्रणीत ग्रन्थ हैं वे आगमाभास (मिथ्या 1. पूर्वापरविरुद्धादेर्व्यपेतो दोषसंहते। द्योतकः सर्वभावानामाप्तव्याहतिरागमः।।९।। आगमो ह्याप्तवचनमाप्तं दोषक्षयं विदुः / त्यक्तदोषोऽनृतं वाक्यं न ब्रूयाद्धत्वसंभवात्।।१०।। रागाद्वा दोषावा मोहाद्वा वाक्यमुच्यते ह्यनृतम्। यस्य तु नैते दोषास्तस्यानृतकारणं नास्ति।। -ध०३/१.२.२/९-११. 2. आप्तवचनादिनिबन्धनमर्थज्ञानमागमः। -परीक्षामुख 3/99 3. वीतरागसर्वज्ञप्रणीत-षद्रव्यादि-सम्यक्श्रद्धानज्ञानव्रताउनुष्ठानभेदरलत्रयस्वरूपं यत्र प्रतिपाद्यते तदागम-शास्त्रं भण्यते। -पंचास्तिकाय, ता०वृ०१७३/२५५. 4. आसमस्त्येनानन्तधर्मविशिष्टतया ज्ञायन्तेऽवबुद्ध्यन्ते जीवाजीवादया पदार्थाः यया सा आशा आगमः शासनम्। -स्याद्वादमञ्जरी 21/262/7. 5. आप्तवाक्यनिबन्धनमर्थज्ञानमागमः। -न्यायदीपिका 3/73/112 ६.अन्यूनमनतिरिक्तं याथातथ्यं विना च विपरीतात्। निसंदेहं वेद यदाहुस्तज्ज्ञानमागमिनः।। -नि०सा०,ता००८ में उद्धृत।

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