Book Title: Dev Shastra Aur Guru
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad

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Page 27
________________ 37 देव, शास्त्र और गुरु आगमों की प्रामाणिकता के पाँच आधार-बिन्दु संसार में अनेक अध्यात्म ग्रन्थ उपलब्ध हैं उनकी प्रामाणिकता का निर्णय कैसे किया जाए ? इस सन्दर्भ में निम्न बिन्दु ध्यान देने योग्य हैं (1) जो अर्हत् केवली (अतिशय ज्ञानवालों) के द्वारा प्रणीत होजैसे लोकव्यवहार में इन्द्रिय-प्रत्यक्ष स्वभावतः प्रमाण है उसी प्रकार आर्ष-वचन भी स्वभावतः प्रमाण हैं, क्योंकि वक्ता की प्रमाणता से वचन में प्रमाणता आती है। जो धर्म, सर्वज्ञ वीतराग के द्वारा कहा गया हो वह प्रमाण है। जिस आगम का बनाने वाला रागादि-दोष युक्त होता है वह आगम अप्रमाण होता है। जिसने सम्पूर्ण भावकर्म और द्रव्यकर्म को दूर करके सम्पूर्ण वस्तुविषयक ज्ञान प्राप्त कर लिया है उसका आगम अप्रमाण कैसे हो सकता है। पुरुषप्रणीत होना अप्रमाणता का कारण नहीं है। (2) जो वीतरागी द्वारा प्रणीत हो— राग, द्वेष, मोह आदि के वशीभूत होकर ही असत्य वचन बोला जाता है। जिसमें रागादि दोष नहीं हैं उसके वचनों में अंश मात्र भी असत्यता का प्रश्न उपस्थित नहीं होता है। 1. चेत्स्वाभाव्यात्प्रत्यक्षस्येव। -ध० 1/1.1.75/314/5. वक्तृप्रामाण्यावचनप्रामाण्यम्। -ध० 1/1.1.22/196/4. 2. अतिशयज्ञानदृष्टत्वात् भगवतामर्हतामतिशयवज्ज्ञानं युगपत्सर्वार्थावभासनसमर्थं प्रत्यक्षम्, तेन दृष्टं तद् दृष्टं यच्छास्त्रं तद् यथार्थोपदेशकम् अतस्तत्प्रामाण्याद् ज्ञानावरणाद्यास्त्रवनियमप्रसिद्धिः। -रा०वा०, 6/27/5/532 तथा 8/16/562. विगताशेषदोषावरणत्वात् प्राप्ताशेषवस्तुविषयबोधस्तस्य व्याख्यातेति प्रतिपत्तव्यम् अन्यथास्यापौरुषेयत्वस्यापि पौरुषेयवदप्रामाण्यप्रसङ्गात्। -ध०१/१.१.२२/१९६/५. सर्वविद्वीतरागोक्तं धर्मः सूनृततां व्रजेत्। प्रामाण्यतो यतः पुंसो वाचः प्रामाण्यमिष्यते।। - पद्मनंदि-पंचविंशतिका 4/10. 3. किंबहुना सर्वतत्त्वानां प्रवक्तरि पुरुषे आप्ते सिद्धे सति तद्वाक्यस्यागमस्य सूक्ष्मान्तरितदूरार्थेषु प्रामाण्यसुप्रसिद्धेः। -गो०जी०/जी०प्र० 196/438/1. 4. देखें, पृ. 33, टि० 1 तथा पमाणत्तं कुदो णव्वदे? रागदोसमोहभावेण पमाणीभूदपुरिसपरंपराए आगमत्तादो।' -ध०१०/५.५.१२१/३८२/१. जिनोक्ते वा कुतो हेतुर्बाधगन्धोऽपि शक्यते। रागादिना विना को हि करोति वितथं वचः।। -अन०ध० 2/20. द्वितीय अध्याय : शास्त्र (आगम-ग्रन्थ) (3) जो गणधरादि आचार्यों द्वारा कथित हो- जिन-वचनवत् गणधरादि के वचन भी सूत्र के समान होते हैं। अतः गणधरादि के वचनों में भी प्रामाणिकता है। (4) जो आचार्य-परम्परा से आगत कथन हो- आज श्रुतकेवली आदि का अभाव है। अतएव प्रमाणीभूत पुरुष-परम्परा (आचार्य-परम्परा) से प्राप्त कथन में ही प्रामाणिकता मानना चाहिए। यदि प्रमाणीभूत पुरुषपरम्परा का व्यवधान हो तो पूर्व-पूर्ववर्ती आचार्य का कथन प्रामाणिक मानना होगा, जहाँ तक प्रमाणीभूत पुरुषपरम्परा प्राप्त है। (5) जो युक्ति और शास्त्र से बाधित न हो- शास्त्रप्रमाण से तथा युक्ति से जो तत्त्व बाधित नहीं होता है वह प्रामाणिक माना जाता है। आगम में तीन प्रकार के पदार्थ बतलाए हैं— दृष्ट, अनुमेय और परोक्ष। आगम में जो वाक्य या पदार्थ जिस दृष्टि से कहा गया हो उसको उसी दृष्टि से प्रमाण मानना चाहिए। यदि वाक्य दृष्ट-विषय में आया हो तो प्रत्यक्ष से, अनुमेय-विषय में आया हो तो अनुमान से तथा परोक्ष-विषय में आया हो तो पूर्वापर का अविरोध देखकर प्रमाणित करना चाहिए। गुरु-परम्परा से प्राप्त उपदेश को केवल युक्ति के बल से विघटित नहीं किया जा सकता, क्योंकि आगम (सूत्र या श्रुत) वही है जो समस्त बाधाओं से रहित हो। 1. देखें, पृ. 35, टि०६. 2. पमाणतं कुदो णव्वदे। .... पमाणीभूदपरिसपरंपराए आगदत्तादो। -ध० 13/5.5.121/382/1. 3. अविरोधश्च यस्मादिष्टं मोक्षादिकं तत्त्वं ते प्रसिद्धेन प्रमाणेन न बाध्यते। तथा हि यत्र यस्याभिमतं तत्त्वं प्रमाणेन न बाध्यते स तत्र युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् / -अष्टसहस्री, पृ०६२. 4. दृष्टेऽर्थेऽध्यक्षतो वाक्यमनुमेयेऽनुमानतः। पूर्वापरविरोधेन परोक्षे च प्रमाण्यताम्।। -अन०प० 2/18/133. 5. कथं णाम सण्णिदाण पदवक्काणं पमाणतं। ण, तेसु विसंवादाणुवलंभादो। -क०पा० 1/1.15/30/44/4. तदो ण एत्थ इदमित्थमेवेति एयंतपरिग्गहेण असग्गाहो कायव्वो, परमगुरुपरंपरागउवएसस्स . जुत्तिबलेण बिहडावेदुमसक्कियत्तादो। -ति०प० 7/613/766/3. ण च सुत्तपडिकूलं वक्खाणं होदि, वक्खाणाभासहत्तादो। ण च जुत्तीए सुत्तस्स बाहा संभवदि सयलबाहादीदस्स सुत्तववएसादो। -ध० 12/4.2.14/38/494/15.

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