Book Title: Dev Shastra Aur Guru
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad

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Page 29
________________ द्वितीय अध्याय : शास्त्र (आगम-ग्रन्थ) देव, शास्त्र और गुरु पूर्वाचार्यों की निष्पक्ष दृष्टि धवला में आया है - 'उक्त [एक ही विषय में ]दो [ पृथक्-पृथक् ] उपदेशों में कौन-सा उपदेश यथार्थ है, इस विषय में एलाचार्य का शिष्य (वीरसेन स्वामी) अपनी जीभ नहीं चलाता क्योंकि इस विषय का कोई न तो उपदेश प्राप्त है और न दो में से एक में कोई बाधा उत्पन्न होती है, किन्तु दोनों में से कोई एक ही सत्य होना चाहिए। इसे जानकर कहना उचित हैं। इस तरह पूर्ववर्ती वीतरागी जैनाचार्यों की निष्पक्ष दृष्टि आज विशेषरूप से अनुकरणीय है। यदि कोई विषय आचार्य-परम्परा से स्पष्ट समझ में न आवे तो अपनी ओर से गलत व्यख्या नहीं करनी चाहिए। श्रुत का बहुत कम भाग लिपिबद्ध हुआ है, शेष नष्ट हो गया है केवलज्ञान के विषयगोचर भावों का अनन्तवाँ भाग दिव्यध्वनि से कहने में आता है। जो दिव्यध्वनि का विषय होता है उसका भी अनन्तवाँ भाग द्वादशाङ्ग श्रुत में आता है। अतएव बहुत-सी सूक्ष्म बातों का निवारण द्वादशाङ्ग श्रुत से नहीं कर सकते हैं। पूर्वाचार्यों ने सूत्र में स्पष्ट कहा है 'जो तत्त्व है वह वचनातीत हैं'। अतः द्वादशाङ्ग तथा अङ्गबाह्यरूप द्रव्यश्रुत मात्र स्थूलपदार्थों को विषय करता है।' ____ दिगम्बर जैनाचार्यों के अनुसार जैनागम तो लुप्त हो चुके हैं तथा उनकी जो विषयवस्तु ज्ञात थी वह भी बहुत कुछ नष्ट हो गई है। तिलोयपण्णत्तिकार ने कुछ ऐसी लुप्त-विषयवस्तुओं की सूचनायें दी हैं जो वहीं से देखना चाहिए।' वहीं यह भी आया है कि 20317 वर्षों में कालदोष से श्रुतविच्छिन्न हो जायेगा। 1. दोसु वि उवएसेसु को एत्थं समंजसो, एत्थ ण बाहइ जिब्भमेलाइरियवच्छवो, अलद्धोवदेसत्तादो दोण्णमेक्कस्स बाहाणुवलंभादो। -ध. 9/4.1.44/126/4. 2. पण्णवणिज्जाभावा अर्णतभागो द अणभिलप्पाणं। पण्णवणिज्जाणं पुण अणंतभागो सुदणिबद्धो।। - गो. जी. 334/731 3. वृद्धैः प्रोक्तमतः सूत्रे तत्त्वं वागतिशायि यत्। द्वादशाङ्गाङ्गबाह्यं वा श्रुतं स्थूलार्थगोचरम्।। -पं.अ., उ. 616 4. तिलोयपण्णत्ति, अधिकार 2, 4-8 5. बीस सहस्स तिसदा सत्तारस वच्छराणि सुदतित्थं। धम्मपयट्टणहेदू वीच्छिस्सदि कालदोसेण।। -ति.प. 4/1413 आगम की महिमा पूर्व तथा अङ्गरूप भेदों में विभक्त यह श्रुतशास्त्र देवेन्द्रों और असुरेन्द्रों से पूजित है। अनन्तसुख के पिण्डरूप मोक्षफल से युक्त है। कर्ममल-विनाशक, पुण्य-पवित्र-शिवरूप, भद्ररूप, अनन्त अर्थों से युक्त, दिव्य, नित्य, कलिरूपकालुष्यहर्ता, निकाचित (सुव्यवस्थित), अनुत्तर, विमल, सन्देहान्धकार-विनाशक, अनेक गुणों से युक्त, स्वर्ण-सोपान, मोक्ष-द्वार, सर्वज्ञ-मुखोद्भूत, पूर्वापरविरोधरहित, विशुद्ध, अक्षय तथा अनादिनिधन है।' आगम का अर्थ करने की पाँच विधियाँ आगम के भावों को सही-सही जानने के लिए अर्थ करने की पाँच विधियाँ बतलाई गई हैं, जहाँ जिस विधि से जो अर्थ प्राप्त होता हो उसे उसी विधि से / जानना चाहिए तथा स्याद्वाद-सिद्धान्तानुसार समन्वय करना चाहिए। पाँचों विधियों के नाम हैं- शब्दार्थ, नयार्थ, मतार्थ, आगमार्थ और भावार्थ। जैसे(क) शब्दार्थ (वाच्याथी शब्द और अर्थ में क्रमश: वाचक और वाच्य शक्ति मानी जाती है। इसमें संकेतग्रह (किस शब्द का क्या अर्थ है, ऐसा ज्ञान) हो जाने पर शब्दों से पदार्थों का जो ज्ञान होता है वही 'शब्दार्थ' कहलाता है। भिन्न-भिन्न शब्दों के भिन्नभिन्न अर्थ होते हैं। शब्द थोड़े हैं और अर्थ अनन्त हैं। शब्दों का अर्थ करते समय देश-काल आदि सन्दर्भो का ध्यान रखना आवश्यक है, अन्यथा अर्थ का अनर्थ हो सकता है। जैसे१. देवासुरिन्दमहियं अणंतसुहपिंडमोक्खफलपउरं। कम्ममलपडलदलणं पुण्णपवित्तं सिवं भदं / / 80 पुल्वंगभेदभिण्णं अणंत-अत्थेहिं संजुदं दिव्वं। णिच्चं कलिकलुसहरं णिकाचिदमणुत्तरं विमल।। 81 संदेहतिमिरदलणं बहुविहगुणजुत्तं सग्गसोवाणं। मोक्खग्गदारभूदं णिम्मलबुद्धिसंदोहं।। 82 / / सव्वण्हुमुहविणिग्गयपुत्वावरदोसरहिदपरिसुद्ध। अक्खमणादिणिहणं सुदणाणपमाण' णिद्दिट्ठ।। -ज. प. 83 2. शब्दार्थव्याख्यानेन शब्दार्थों ज्ञातव्यः। व्यवहारनिश्चयरूपेण नयाथों ज्ञातव्यः। सांख्य प्रति मताओं ज्ञातव्याः। आगमार्थस्तु प्रसिद्धः। हेयोपादानव्याख्यानरूपेण भावार्थोऽपि ज्ञातव्यः। इति शब्दनयमतागम-भावार्थाः व्याख्यानकाले यथासंभवं सर्वत्र ज्ञातव्याः। -स.सा., ता.वृ. 120/177

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