Book Title: Dev Shastra Aur Guru
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad

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Page 18
________________ प्रथम अध्याय : देव (अर्हन्त-सिद्ध) अभग्न-प्रतिमा के समान अभेद्य आकार से युक्त तथा सब अवयवों से पुरुषाकार होने पर भी गुणों में पुरुष के समान नहीं हैं, क्योंकि पुरुष सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयों को भिन्न देश से जानता है, परन्तु जो प्रतिप्रदेश से सब विषयों को जानते हैं, वे सिद्ध है। देव, शास्त्र और गुरु जाते हैं। सिद्धत्व जीव का स्वाभाविकभाव है। जितने जीव सिद्ध होते हैं उतने ही जीव निगोदराशि से निकलकर व्यवहारराशि में आ जाते हैं जिससे लोक कभी भी जीवों से रिक्त नहीं होता है। चैतन्यमात्र ज्ञानशरीरी- सिद्ध न तो चैतन्यमात्र हैं और न जड़, अपितु ज्ञानशरीरी (सर्वज्ञ) हैं। सकल कर्मों का क्षय हो जाने पर आत्मा न तो न्यायदर्शन की तरह (ज्ञानभिन्न) जड़ होता है और न सांख्यदर्शन की तरह चैतन्यमात्र, अपितु आत्मा के ज्ञानस्वरूप होने से वह 'ज्ञानशरीरी' (सर्वज्ञ) हो जाता है तथा ज्ञान के अविनाभावी सुखादि अनन्तचतुष्टय से सम्पन्न हो जाता है। सिद्धों का स्वरूप सिद्धों के स्वरूप के सम्बन्ध में निम्न तीन उद्धरण द्रष्टव्य हैं१. 'जो आठों प्रकार के कर्मों के बन्धन से रहित, आठ महागुणों से सुशोभित, ___परमोत्कृष्ट, लोकाग्र में स्थित और नित्य हैं, वे सिद्ध हैं। 2. 'जो आठ प्रकार के कर्मों से रहित, अत्यन्त शान्तिमय, निरञ्जन, नित्य, आठ गुणों से युक्त, कृतकृत्य तथा लोकाग्र में निवास करते हैं, वे सिद्ध हैं। यहाँ जन्म, जरा, मरण, भय, संयोग, वियोग, दुःख, रोग आदि नहीं होते।' 3. 'जो आठ कर्मों के हन्ता, त्रिभुवन के मस्तक के भूषण, दुःखों से रहित, सुखसागर में निमग्न, निरञ्जन, नित्य, आठ गुणों से युक्त, निर्दोष, कृतकृत्य, सर्वाङ्ग से समस्त पर्यायों सहित समस्त पदार्थों के ज्ञाता, वज्रशिलानिर्मित 1. मुक्तिंगतेषु तावन्तो जीवा नित्यनिगोदभवं त्यक्त्वा चतुर्गतिभवं प्राप्नुवन्तीत्यर्थः। __-गो०जी०, जी०प्र०/१९७/४४१/१५, तथा देखिए, पृ. 23, टि०३ 2. सकलविप्रमुक्तः सन्त्रात्मा समग्रविद्यात्मवपुर्भवति न जडो, नापि चैतन्यमात्ररूपः। -स्वयम्भूस्तोत्र, टीका 5/13. 3. गट्ठट्ठकम्मबंधा अट्ठमहागुणसमण्णिया परमा। लोयग्गठिदा णिच्चा सिद्धा ते एरिसा होति।। -नि०सा० 72. ४.अट्ठविहकम्मवियडा सीदीभूदा णिरंजणा णिच्चा।। अट्ठगुणा कयकिच्चा लोयग्गणिवासिणो सिद्धा।। - गो०जी०६८ तथा देखिए, पं०सं०,प्रा० 31 जाइ-जरा-मरणभया संजोय-विओयदुक्खसण्णाओ। रोगादिया य जिस्से ण होति सा होइ सिद्धगई।। -पं०सं०,प्रा०,६४ सिद्धों के प्रसिद्ध आठ गुण ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के अभाव से सभी सिद्धों में निम्न आठ गुण प्रकट हो जाते हैं। इनमें प्रथम चार गुण (जीव के अनुजीवी गुण) घातिया कर्मों के अभाव से पहले ही जीवन्मुक्त अवस्था में प्रकट हो जाते हैं तथा शेष चार गुण (जीव के निज गुण) अघातिया कर्मों के नष्ट होने पर प्रकट होते हैं। जैसे- 1. क्षायिक सम्यक्त्व (मोहनीय कर्म-क्षयजन्य), 2. अनन्तज्ञान (ज्ञानावरणीय कर्मक्षयजन्य), 3. अनन्तदर्शन (दर्शनावरणीय कर्मक्षयजन्य), 4. अनन्तवीर्य (अन्तरायकर्मक्षयजन्य), 5. सूक्ष्मत्व (अमूर्तत्व = अशरीरत्व; नामकर्म से प्रच्छादित गुण), 6. अवगाहनत्व (जन्म-मरणरहितता; आयुकर्म-क्षयजन्यगुण), 7. अगुरुलघुत्व (अगुरुलघुसंज्ञक गुण जो नामकर्म के उदय से ढका रहता है या गोत्रकर्म-क्षयजन्य ऊँच-नीचरहितता) और 8. अव्याबाधत्व (वेदनीयकर्म-क्षयजन्य अनन्त सुखइन्द्रियजन्य सुख-दुःखाभाव)। यहाँ इतना विशेष है कि एक-एक कर्मक्षयजन्यगुण का यह कथन प्रधानता की दृष्टि से है, क्योंकि अन्यकर्मों का क्षय भी आवश्यक है। वस्तुतः आठों ही कर्म समुदायरूप से एक सुख गुण के विपक्षी हैं, कोई एक पृथक् गुण उसका विपक्षी नहीं है। सुख का हेतु स्वभाव-प्रतिघात 1. णिहयविविहट्ठकम्मा तिवणसिरसेहरा विहुवदुक्खा। सुहसायरमज्झगया णिरंजणा णिच्च अट्ठगुणा।।२६ अणवज्जा कयकज्जा सव्वावयवेहि दिट्ठसव्वट्ठा। वज्जसिलत्थब्भग्गय पडिमं बाभेज्ज संठाणा।।२७ माणुससंठाणा वि हु सव्वावयवेहि णो गुणेहि समा। सविदियाण विसयं जमेगदेसे विजाणंति।।२८ -ध०१/१.१.१/२६-२८. 2. सम्मत्त-णाण-दंसण-वीरिय-सुहमं तहेव अवगहणं। अगुरुलघुमव्वावाहं अट्ठगुणा होति सिद्धाणं।। -लघु सिद्धभक्ति 8 तथा देखिए-वसुनंदि श्रावकाचार 537, पंचाध्यायी/उ०६१७-६१८, परमात्मप्रकाश टीका 1/61/62/1 3. कर्माष्टकं विपक्षि स्यात् सुखस्यैकगुणस्य च। अस्ति किंचिन्न कर्मकं तद्विपक्षं ततः पृथक् / / -पं०अ०, उ० 1114

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