Book Title: Chaturthstuti Nirnay
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

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Page 13
________________ ( ११ ) यह फेरके दीक्षा उपसंपत् करनेका जिस माफ क जैनशास्त्र में जगे जगे लिखे है, तिसि माफक हम इनोके हितके वास्ते कुछ प्राप श्रावकोंकों कहते है. तथाच जीवानुशासनवृत्तौ श्रीदेवसूरिभिः प्रोक्तं ॥ यदि पुनर्गगुरु सर्वथा निजगुणविकलो नवति तत आगमोक्तविधिना त्यजनीयः परं कालापेढया योऽन्यो विशिष्टतरस्तस्योपसंपाह्या न पुनः स्वतंत्रैः स्थातव्यमिति हृदयं । इति जीवानुशासनवृत्तौ । इसकी षा लिखते हैं जेकर गन और गुरु यह दोनो स र्वथा निजगुण करके विकल होवे तो, यागमोक्त विधि करके त्यागने योग्य है, परं कालकी अपेक्षायें अन्य कोइ विशिष्टतर गुणवान संयमी होवे, तिस समीपें चा रित्र उपसंपत् यथात् पुनर्दीक्षा ग्रहण करनी परंतु उपसंपदा के लीया विना स्वतंत्र अर्थात् गुरुके विना रहणा नही इस कहनेका तात्पर्यार्थ यह है के जो कोइ शिथिलाचारी संयमी क्रिया उधार करे सो अवश्यमेव संयमी गुरुके पास फेरके दीक्षा लेवें. इस हेतुसें रत्नविजयजी अरु धनविजयजीकों उचित है के प्रथम किसी संयमी गुरुके पास दीक्षा लेकर पीछे क्रिया उधार करें तो यागमकी याज्ञानंग रूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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