Book Title: Chaturthstuti Nirnay Author(s): Atmaramji Maharaj Publisher: Shravak Bhimsinh ManekPage 12
________________ ( १० ) तत्पादपद्मनुंगा, निस्संगाचंगतुंगसंवेगाः ॥ संजनित शुद्धबोधाः, जगति जगचं सूरिवराः ॥ ६ ॥ तेषा मुनौ विनेयो, श्रीमान् देवेंड्स रिरित्याद्यः ॥ श्रीविज यचंसू रिर्द्वितीयकोऽद्वैतकीर्त्तिनरः ॥ ७ ॥ स्वान्ययो रुपकाराय, श्रीमद्देवेंड्सूरिणा ॥ धर्मरत्नस्य टीकेयं, सुखबोधा विनिर्ममे ॥ ८ ॥ इत्यादि. इस वास्ते जव नीरु पुरुषांकों अभिमान नहीं होता है, तिनकूं तो श्रीवीतरागकी प्रज्ञा याराधनेकी अभिलाषा होती है, तब रत्नविजयजी अरु धनविजयजी यह दोनुं जेकर जवजीरु है, तो इनकोंजी किसी संयमी मुनिके पास फेरके चारित्रोपसंपत् अर्थात् दोहा लेनी चाहि यें, क्योंके फेरके दीक्षा लेनेसें एकतो अभिमान दूर होजावेगा, और दूसरा याप साधु नहीं है तोनी लो हम साधु है ऐसा केहना पडता है यह मिथ्या जाषण रूप दूषणसेंजी बच जायगे, अरु तीसरा जो कोइ नोर्जे श्रावक इनकों साधु करके मानता है, उन श्रावकों के मिथ्यात्वनी दूर हो जावेगा . इत्यादि बहुत गुण उत्पन्न होवेंगे जेकर रत्नविजयजी धनवि जयजी यात्मार्थी है तो यह हमारा कहना परमो पकाररूप जानके अवश्यही स्वीकार करेंगें. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 ... 198