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घकी आग्रह पूर्वक विनंति सुनकर और लानका कारण जानकर महाराज श्रीवात्मारामजीने यह विषयपर ग्रंथ बनानेकी मंजुरीयात दीनी. फेर महा राज साहेब यह रत्न विजयजीको प्रथमकी मंत्रसाध नेकी हकीकतसें तथा पीसें श्रीविजयधरणींइसरिसें खटपट चली इत्यादि,औरजी तिसके पीछे स्वयमेव श्री पूज बन बैठे, तथा उदेपुरके राणेकी फरमाससें पा लखी चमरादि बीन लीनी,तदपीने स्वयमेव साधुजी बन बैठे इत्यादि कितनीक हकीकत प्रथमसे सुनीथी
और कितनीक अबनी श्रावकोंके मुख- सुनके करु णाके समुश्, परोपकार बुद्धिकेही परमाणुसें जिनोके शरीरकी रचना दूर है ऐसे महाराज साहेबने प्रथ मतो रत्नविजययजी बहुल संसारी न हो जावे इसी वास्ते इनोका नधार करना चाहीयें. ऐसा उपकार बुझिसे हम सब श्रावकोंकों कहने लगे के प्रथमतो यह रत्नविजयजीकों जैनमतके शास्त्रानुसार साधु मानना यह बात सि नही होती है. क्योंके ? रतन विजयजी प्रथम परिग्रहधारी महाव्रतरहित यति थे, यह कथा तो सर्व संघमे प्रसिद है, अरु पीले नि ग्रंथ पणा अंगीकार करके पंचमहाव्रत रूप संयम
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