________________ 134 सा श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र आभापुरी के नगरजन तो इस नाटकमंडली के अद्भुत और आश्चर्यजनक खेल देख कर बहुत खुश हो गए। नगरजन इस बात की प्रतीक्षा कर रहे थे कि रानी वीरमती सबसे पहले पुरस्कार दे दे, जिससे बाद में वे भी इन कलाकारों पर अपनी ओर से इनामों की वर्षा करे और इन कलाकारों को खुश कर दें। लेकिन वीरमती से पहले इन कलाकारों को इनाम देने की किसा की हिम्मत नहीं हुई, क्योंकि वीरमती के नीच, क्रूर और ईर्ष्यालु स्वभाव से सारी आभानगरी सुपरिचित थी। इधर गुणावली की गोद में होनेवाले सोने के पिंजड़े में पड़े हुए राजा चंद्र यद्यपि इस समय मुर्गे के रूप में थे, लेकिन इनमें सब कुछ समझ लेने की शक्ति थी। इसलिए चंद्र राजा ने मुर्गे के रूप में पिंजड़े में पड़े-पड़े सोचा कि ये कलाकार लोग मेरी जयजयकार करके मेरीकीर्ति बढ़ा रहे हैं, इसीलिए मेरे प्रति अत्यंत ईर्ष्या का भाव रखने वाली यह वीरमती उन पर नाराज होकर उन्हें इनाम नहीं दे रही है। लेकिन ऐसा करने से देश देशान्तर में आभापुरी और उसके शासक की कंजूसी के लिए बदनामी होगी। इसके विपरीत इन कलाकारा को दिया हुआ थोड़ा-सा भी दान आभापुरी और उसके शामकों की कीर्ति देशदेशांतर में फैलाएगा / अन्यथा, यहाँ से नाराज होकर जाने पर यह नाटकमंडली जहाँ भी जाएगी, वहाँ आभापुरी और उसके शासकों को निंदा करती हुई घूमेगी। ऐसा विचार मन में आने पर सोने के पिंजड़े में मुर्गे के रूप में होनेवाले चंद्र राजा ने | अपने पिंजड़ें में होनेवाली सुवर्ण की रत्नजडित कंधी अपनी चोंच में पकड़ कर इस तरह नीचे / फेंको जिससे वह सीधी नटराज शिवकुमार के हाथ में जा पड़ी। वह कंधी हाथ में पड़ने पर / नटराज शिवकुमार खड़ा हो गया और उसने बहुत खुशी से वह कंधी पुरस्कार रुप में ग्रहण करली। इस द्दश्य को वहाँ उपस्थित सभी दर्शक देखते ही रह गए। किसीको यह पता न चला कि सबसे पहले इनाम किसने दिया, लेकिन किसीने पुरस्कार-इनाम-देना प्रारम्भ किया है यह देख कर यह नाटक देखने के लिए आए हुए अन्य दर्शकों ने भी नटमंडली पर इनामों की झड़ी। सी लगा दी। - वहाँ उपस्थित दर्शकों में से किसीने नटमंडली को अपने पास होनेवाले सुवर्णलकार - दिए, तो किसीने चाँदी के आभूषण प्रदान किए। अनेक लोगों ने कलाकारों को उत्तम वस्त्र इनाम = के रूप में दे दिए। देखते-देखते कलाकारों की प्राप्त हुए इनामों की वस्तुओं का वहाँ बड़ा ढेर - लग गया। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust