________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र 213 __. लेकिन यह समाचार मेरी सास के कानों में सुनाया तो वह दुष्ट स्त्री कोई-न-कोई नई भाफत लाए बिना चुप नहीं बैठेगी। इसलिए इस समय यह बात गुप्त रखना ही अच्छा है। कुछ समय के बाद आपके मन में यहाँ पधारने की इच्छा उत्पन्न हुई, तो आने से पहले आप अपनी सौतेली माँ के नाम एक पत्र लिख भेजिए और उसे सबकुछ बता दीजिए। . . फिर समय के अनुसार जो करने योग्य होगा वह कीजिए / अब और क्या लिखू ? अंतमें, फिर एक बार आपसे प्रार्थना करती हूँ कि मेरे अपराध के लिए मुझे क्षमा कीजिए। इस . अभागिन को भूल मत जाइए। आपके चरणों की इस दासी को यथाशीघ्र दर्शन देने की कृपा कीजिए। आपकी दासी, गुणावली" गुणावली का उपर्युक्त पत्र पढ़कर चंद्र राजा के हृदय पर उसका बहुत अच्छा और हरा प्रभाव हुआ। चंद्र राजा ने अपने मन में सोचा, “सचमुच, गुणावली गुणावली है। उसका नाम सार्थक है। उसका प्रेम भाव और विवेक सराहनीय है। अब वह शुभ दिन जल्द से जल्द आए, जब हमारा वियोग समाप्त हो और हम दोनों की एक दूसरे से मिलन की चिरकाल की अभिलाषा पूरी हो जाए। . इधर 'चंद्रराजा को मनुष्यत्व की प्राप्ति हो गई' यह समाचार वीरमती को मिलते ही उसका मन क्रोध और ईर्ष्या से जल उठा। वह मन में सोचने लगी - "इस जगत् में ऐसा कौन शक्तिशाली निकला जिसने चंद्रकुमार को फिर से मनुष्य बना दिया ? सुना गया है कि चंद्र को आभापुरी लौट आने की इच्छा है। वैसे यह तो मेरी ही गलती हो गई कि मैंने उसे जीवित छोड़ दिया, उसी समय उसका काम तमाम नहीं किया। मैंने उसे पहले ही खत्म कर दिया होता, तो आज ऐसा अनिष्ट समाचार सुनने का अवसर ही न आता। पापी मनुष्य को पाप करना बाकी रह गया इसका बहुत दु:ख होता रहता है। इसके विपरीत धर्मिष्ट मनुष्य को धर्म करने का काम बाकी रहा, जो दु:ख होता हैं। . जैसे बिल्ली विचार करती है कि मेरी पकड़ में आया हुआ चूहा खिसक गया। वैसे ही वीरमती भी अब सोच रही थी कि मेरे हाथ में आए हुए चंद्र को मैंने जिंदा छोड़ दिया, यह मेरी . ओर से बहुत बड़ी भूल हो गई / मेरे सामने एक बच्चे जैसा होते हुए भी, फिर से मेरे साथ प्रतिस्पर्धा करना चाहता हैं, लेकिन उसको क्या मालूम कि ऐसा करना आसान नहीं हैं। अच्छा तो यह होगा कि मैं उसे आभापुरी में लौट आने ही नदूं। मैं स्वयं विमलापुरी चली जाऊँगी और उसका मानमर्दन कर दूंगी। उसे मृत्यु से ही मिला दूंगी ! उसे अब जिंदा रखू तो मेरे सामने वह फिर मस्तक ऊँचा उठाएगा न ? इस घटना से मुझे यह बोधपाठ ही मिल गया है कि शत्रु को जिंदा रखना यह महामूर्खता हैं। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust