________________ 255 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र हे राजन् ! रूपवती और तिलकसुंदरी के वहाँ से चले जाने के बाद जिस साध्वीजी पर राजकुमारी ने चोरी का झूठा इल्जाम लगाया था, वे मन में अत्यंत खेद करने लगीं। इन साध्वीजी ने मन में विचार किया कि यदि यह बात सारे नगर में फैल जाएगी तो हमारे समूह की सभी साध्वियों को बदनाम होना पड़ेगा। दूसरी बात यह हैं कि राजपुत्री की कही हुई बात पर. सामान्यजनों को अधिक विश्वास होगा / कलंकित होकर जीने को अपेक्षा मर जाना अच्छा है। चारित्र्यसंपन्न साध्वीजी क्षोभ और खेद के कारण किंकर्तव्यविमूढ बन गई / उन्होंने आव देखा न ताव / वे एकांत में चली गई और उन्होंने आत्महत्या करने के उद्देश्य से गले में फंदा बाँध दिया और वे हवा में लटक गई। लेकिन साध्वीजी के प्राण जाने से पहले ही उपाश्रय के पड़ोस में ही रहनेवाली सुरसुंदरी नामक श्राविका ने यह द्दश्य अपने घर की खिड़की से देखा / वह दौडती हुई आई और उसने साध्वीजी के गले का फंदा तोड़ डाला। साध्वीजी के प्राण बच गए। यह श्राविका सुरसुंदरी बडी ही चतुर थी। उसे पहले ही खबर हो गई थी कि इस साध्वीजी पर राजकुमारी ने चोरी का इल्जाम लगा लिया है। इसलिए कुछ न कुछ अघटित हो सकता है। इस लिए मन में आशंका होते ही वह समय पर दौड़ती हुई आई और उसने साध्वीजी के प्राण बचा लिए। एसी श्राविकाएँ साध्वियों की सच्ची माता कहलाएँगी / सुरसुंदरी श्राविका ने सुयोग्य उपाय करके साध्वीजी को फिर से स्वस्थ बना दिया। स्वस्थ बनी हुई साध्वीजी फिर समताभाव से आई और निरतिचार चारित्र्य का पालन करने लगी। राजपुत्री तिलकमंजरी ने साध्वीजी पर झूठा कलंक लगा कर अपने लिए अत्यंत गहरा | 'निकाचित' पापकर्म बाँध लिया। अज्ञानी जीव को कर्म बाँधते समय इस बात का भान नहीं रहता है कि इस बाँधे हुए दुष्कर्म का फल मुझे ही रोते-रोते भूगतना पड़ेगा। कर्मसत्ता के साम्राज्य में अंधेरखाता नहीं हैं। वह सभी जीवों द्वारा किए जानेवाले कर्मों की समय-समय पर बराबर नोटकर के रखती है। उसकी नजर में से जीवद्वारा किया गया कोई भी कर्म नहीं छूटता है। इधर राजपुत्री और मंत्रीपुत्री के बीच हररोज जैनधर्म और विधर्म के बारे में विवाद चलता रहता था। वे दोनों अपने-अपने धर्म को श्रेष्ठ मानकर उसके आचारों का पालन करती. P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust