________________ श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र _145 गुणावली की बात सुन कर मंत्री स्थिति सरौते में पड़ी हुई सुपारी जैसी हो गई / मंत्री ने गुणावला को सांत्वना देने के उद्देश्य से कहा. "हे रानी. आप इस तरह दखी मत होइए। आप अच्छा तरह से जानती हैं कि आपकी सास का स्वभाव कैसा कटिल है / यदि मैं मर्गे को शिवमाला से वापस ले आऊँ तो वह आग बगला हो जाएगी। वह क्रुद्ध वृद्धा नागिन फिर क्या कर बठगी, यह कहना बड़ा कठिन है। याद रखिए कि अब वह बहत लम्बे अरसे तक जिंदा नहीं रहनेवाली हैं। उसकी स्थिति तो विनाशकाले विपरीत बुद्धि' इस कहावत-सी हो गई है। अंत में आपके पतिदेव राजा चंद्र ही इस राज्य के स्वामी बननेवाले हैं। इसलिए आप इस संकटकाल में धैर्य धारण कीजिए। विश्वास कीजिए, इसका अंतिम फल मीठा ही होगा।" मत्रों की सांत्वना भरी बातें सुन कर गुणावली के विरहदग्ध हृदय को कुछ शांति मिली। इसलिए उसने मन में धैर्य धारण कर लिया और मंत्री की सलाह के अनुसार मुर्गे को शिवमाला से वापस लाने का अपना आग्रह छोड़ दिया / गुणावली ने मेवे, मिठाइयाँ और फलों से सजा एक थाल मंत्री को सौंप कर कहा, “हे मत्राजी, आप यह थाल सिवमाला के पास पहुँचाइए और उससे कहिए कि मैंने ये चीजें अपने पतिदेव के भोजन के लिए भेजी हैं।" गुणावली की इच्छा के अनुसार मेवों-मिठाइयों फलों से सजा हुआ थाल लेकर मंत्री शिवमाला के यहाँ जा पहुंचे। उन्होंने शिवमाला के पास वह थाल देकर कहा, “देखो, यह मुर्गा * अन्य नहीं, बल्कि हमारे महाराज राजाचंद्र हैं। उन्हें खाने के लिए उनकी पटरानी गुणावली यह मवा - मिठाइयों का थाल भेजा है और साथ में तुम्हारे लिए यह संदेश भी दिया है कि "शिवमाला, मेरे प्रिय प्राणाधार को उनकी सौतेली माँ ने मंत्रशक्ति के बल पर मुर्गा बना दिया हैं / इसालए मेरे प्रिय को अपने प्राणों के समान प्रिय मान कर उनकी रक्षा करो ओर उनका पालन करो। उनकी सेवा में कोई कसर उठा मत रखो। इस धरती पर परिभ्रमण करते-करते कभी कभा अवश्य हमारे पास आओ। तुम अपनेपरिभ्रमण में जिन-जिन दिशाओं में और जहाँ भी जाआगा वहाँ से पत्र के द्वारा मेरे पति के क्षेमकुशल का समाचार अवश्य भेजो। तुम्हारे इस उपकार का बदला मैं समय आने पर अवश्य चुकाऊँगी।" गुणावली द्वारा शिवमाला के लिए दिया गया संदेश उसे सुनाकर और अपने महाराजा राजाचंद्र को (मुर्गे को) विनम्रता से प्रणाम कर मंत्री अपने निवासस्थान की ओर लौट आए। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust