________________ __ 186 श्री चन्द्रराजर्षि चरित्र उस समय सूरजकुंड पर शीतल और मंद-मंद गति से बहनेवाली सुगंधिक वायु की तरंगे आ रही थी। प्रेमला के हाथ में कुक्कुटराज आराम से बैठे थे / वहाँ बैठे-बैठे सब को स्वर्गीय सुख का अनुभव प्राप्त होने लगा। सूरजकुंड को देख कर बहुत प्रसन्न लगनेवाले मुर्गा राजा को यकायक अपने भूतकाल और वर्तमानलकाल का स्मरण हो आया और उसके मन में एक के बाद एक पूर्वजन्म की स्मृतियाँ आने लगी। इससे खिन्न होकर वह मन में सोचने लगा। हाय ! इस प्रकार मैंने तिर्यच (पक्षी) की अवस्था में अपने जीवन के सोलह वर्ष बिता दिए, अनेक प्रकार की कठिनाइओं का मैंने सामना किया। लेकिन अबतक मुझे सुख के सूर्य के दर्शन नहीं हुए। ऐसी ही कठिनाइयों में जाने और कितने वर्ष व्यतीत करने पड़ेगे ? कहाँ मेरी पटरानी गुणावली ? कहाँ मेरी आभापुरी का राजमहल ? कहाँ मेरे स्वजन संबंधी ? कहाँ मेरी सेना ? कहाँ मेरा राज्य ? इन सबके होते हुए भी इस समय इनमें से कोई मेरे काम का नहीं रहा हैं। मेरी सौतेली माँ वीरमती तो मेरी बैरिन ही है। वह तो मुझे जान से जान से मार डालने की ही इच्छा निरंतर रखती है। उसीने तो मेरी यह दुर्दशा कर दी है। यह सारा संसार स्वार्थ से भरा हुआ है। सबको अपना-अपना स्वार्थ प्रिय है। यह संसार असार है ! इस संसार में कोई सुख नहीं है / कोई सार नहीं है। इन नटों ने मुझे देश-विदेश में बहुत बहुत घुमाया। लेकिन अभीतक मेरे अशुभ कर्म का ___ अंत नहीं आया। मैं मनुष्य नहीं रहा, बल्कि एक हतभागा मुर्गा हो गया। इस समय मुझे दूसरों की दया पर जीना पड़ रहा है। एक समय था, जब मेरी दया पर लाखों जीते थे ; मैं लाखों को मुँहमाँगा दान देता था। आज मुझे दूसरों से अन्नदान, वस्त्रदान स्थानदान लेना पड़ता है ; अपने हर काम के लिए दूसरों का मुँहताज होना पड़ता है। .. आज सबको देनेवाला ही लेनेवाला बन गया है, लाचार बन गया है / दाता ही याचक बन गया है। एक समय मैं लाखों का रक्षक था, आज मेरी रक्षा दूसरों को करनी पड़ रही है / पहले मैं सब पर हुक्म चलाता था, आज मुझे दूसरों के हुक्म के अनुसार चलना पड़ रहा है / अब तक मैं स्वाधीनता का स्वामी था, स्वतंत्र था, लेकिन आज मुझे दूसरों की पराधीनता स्वीकार करनी पड़ रही है, मैं प्रसन्न हो गया हूँ। राज्यसंपत्ति का स्वामी था मैं, लेकिन आज मुझे कदम कदम पर विपत्ति का सामना करना पड़ रहा है। P.P. Ac. Gunratnasuri M.S. Jun Gun Aaradhak Trust