Book Title: Bhimsen Nrup Charitra
Author(s): Ajitsagarsuri
Publisher: Sagargaccha Jain Sangh Sanand

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Page 19
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra •************************** www.kobatirth.org प्रार्थनानुकूलया, कियत्फलं दुर्जननामकीर्त्तनात् ॥ १४ ॥ न सजनः स्तोत्रविधानकाले, स्मर्त्तु सतां दुर्जन एव योग्यः । तोsपि यो दूषयति स्वभावाद्, गुणोत्करान्सज्जन मोदमूलान् || १५ || स्तुत्योऽथवा किं न सुदुर्जनोऽयं, परोपकारप्रवणः स्वभावात् । बलात्समादाय निबद्धदोष, समुज्ज्वलं यः परमातनोति ॥ १६ ॥ श्री भीमसेनस्यचरित्रमद्भुतं तनोमि दुष्कर्मलतालवित्रम् | सिद्धान्ततत्त्वाऽनुगतं यथामति, जाड्याऽन्धकारोद्धरणे सुमित्रम् ॥ १७ ॥ समस्ति जम्बूपपदं विशालं द्वीपं सुरोर्वीधरराजिताऽऽशम् । समृद्धवैर्ष नववारिमुग्व-त्समुद्रवद् द्वीपवतीविराजि ॥ १८ ॥ तन्मध्यगा म्यर्द्धमृगाङ्कसनिमं, क्षेत्रं त्रियामास्पदमार्गसेवितम् । अभिख्यया तत्प्रथमस्य चक्रिणः, प्रसिद्धिमापद्भरतेति भूतले ॥ १९ ॥ प्रभाव्यताढ्य - महीधरेख, पूर्वापराम्भोनिधिसंगतेन । द्विधा कृतं तत्प्रविभाति नित्यं, समृद्धिभाग्दचिणमुत्तरश्च ॥ २० ॥ याम्ये दले मध्यगतो विभूत्या, विभाति देशो मगधाऽभिधानः । जिनेन्द्र चैत्यावलिराजितो यः, सर्वोत्तमत्वं समवाप लोके ॥ २१ ॥ तस्मिन्वभौ राजगृहं सुरम्यं, भूभामिनीभालविभूषणाऽऽभम् । त्रिविष्टपश्रीप्रतिविम्बशङ्कां तन्वन्ति यद्वीच्य सुराऽसुरेन्द्राः ॥ २२ ॥ विलोक्य यस्मिन्मनुते सरांसि न मानसं हंसनिवासभूतम् । भूताऽऽत्मकं विग्रहमन्तरेण यथैव लोकायतिको जनौघः ॥२३॥ अङ्केषु यत्रैव विराजतेऽभ्रं न शून्यता चत्वरसौधपङ्गिषु । छत्रेषु दण्डस्तु विराजते सदा, प्रजासु नैवोद्यमतत्परासु ॥ २४ ॥ मारीति शब्दोऽक्ष विलास भाजां मुखेषु पश्वादिषु न प्रवर्तते । चौर्यादिशब्दा हि तदर्थवाचके, न पौरलोकेषु पदं श्रयन्ते ||२५|| कुटुम्बिताऽशेषजनेषु तस्थौ परस्परं वैरमतिं विहाय । सा नाकिनां लोभयतिस्म चेतो- यस्मिन् हि सर्वत्र गुणाः प्रथन्ते १ क्षेत्राणि - वर्षा वृष्टिश्च । २ नदीभिः | ३ चार्वाक मतवादी । For Private And Personal Use Only Acharya Shri Kissagarsun Gyanmandir *****++******+++++*

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