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ऊपर भी देखो मैं जितना नीचे देखता हूँ, अपने-आपमें उतना ही विशाल लगता हूँ। जब थोड़ा ऊपर देखता हूँ तो मेरी विशालता इस असीम गगनमें विलीन हो जाती है।
दूसरेको भी देखो जिसे देखना चाहिए वहाँ दृष्टि नहीं जाती। जिसे नहीं देखना चाहिए वहाँ देखनेका प्रयत्न होता है। यह कैसा विपर्यय ! काचमें मनुष्य अपने आपको ही देखता है । कब किसने तनिक भी उसकी स्वच्छताको देखा?
भाव और अनुभाव
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