Book Title: Bhav aur Anubhav
Author(s): Nathmalmuni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 110
________________ आराध्यके प्रति भगवन् ! मैं ज्यों-ज्यों तुम्हारे पास पहुँचनेकी चेष्टा करता हूँ त्योंत्यों तुम आगे सरक जाते हो। यह कैसी आँख-मिचौनी ? भगवन् ! तुम्हारी दृष्टिमें अमृत रहता है। उससे अमरत्व मिलता है-कैसे मानूँ ? भक्त अपने-आपको खो देता है फिर अमरत्व कैसा? प्रभो ! तुम अन्तर्यामी हो-यह कैसे मानूं ? मैं तुम्हारे अन्तर्मे पैठनेकी चेष्टा करता हूँ-तुम ऐसा कब करते हो ? प्रभो! मुझे वह औषध दो जिसे पी मेरा उत्साह बालक-सा चपल, युवक-सा बलवान् और वृद्ध-सा अनुभवी बने । भाव और अन Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org

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