Book Title: Bhaktamar Stotra Ek Divya Drushti
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 12
________________ गौरवानुभूति की हेतुता मे सर्वतोभावेन स्तुत्य हैं। जैन स्तोत्रमाला मे स्तोत्रो के जो विविध रूप उपस्थित हैं, उनमे भक्तामर स्तोत्र काफी महत्ता प्राप्त स्तोत्र है। उसके सबध मे अनेक चमत्कार प्रधान गाथाएँ जैन समाज मे सुप्रचलित हैं, जो भक्तामर स्तोत्र के प्रति तर्कातीत श्रद्धा का अद्भुत रूप लिए हुए हैं। यही हेतु है, हजारो भक्त प्रतिदिन भक्तामर स्तोत्र का पाठ करते हैं। अनेक महानुभाव तो ऐसे हैं कि प्रात काल भक्तामर स्तोत्र का पाठ किये बिना अत्यन्त पिपासित एव बुभुक्षित स्थिति मे भी मुख मे जल की एक बूद एव अन्न का एक कण भी नही डालते हैं। यह भक्तामर के प्रति श्रद्धा का ही सुपरिणाम है कि उसके अनेक सस्करण अनेक रूपो मे प्रकाशित हो रहे हैं। प्रत्येक प्रकाशन की महत्ता एव गुणवत्ता अपनी एक विशिष्टता रखती है। अतः हम यहा श्रद्धास्निग्ध भक्तो द्वारा सपादित एव प्रकाशित उन सस्करणो मे अच्छे-बुरे की कोई कल्पना नही करते हैं। भक्त द्वारा अपने आराध्य प्रभु के गुणो के सगान के रूप मे अनुगुंजित हुए स्तोत्रो के प्रकाशनों में अच्छे-बुरे के विकल्प हो भी कैसे सकते हैं। प्रस्तुत से यहा डॉ साध्वीरत्न श्री दिव्यप्रभाजी द्वारा परिभाषित एव सम्पादित भक्तामर स्तोत्र के सबध मे कुछ पंक्तियाँ उपस्थित कर रहा हूँ। यह सस्करण अपनी एक महती विशिष्टता रखता है। श्री दिव्यप्रभाजी ने अपनी प्रतिभा का श्लाघनीय उपयोग करके भक्तामर स्तोत्र के श्लोको मे अन्तर्निहित आध्यात्मिक भावना को प्रस्फुटित किया है। शब्द का महत्त्व अवश्य है किन्तु जब तक शब्द मे निहित भावार्थ एव परमार्थ की ज्योति को उद्भासित न किया जाए, तब तक भक्तहृदय लोकोत्तर दिव्य आलोक से आलोकित नही हो सकता, जो कि आध्यात्मिक शक्ति के जागरण के हेतु नितान्त आवश्यक है। मैं नेत्र-ज्योति की क्षीणता के कारण स्वय पठन मे अशक्त हूँ। अत. प्राप्त पुस्तक मे से इतस्तत' जो सुन पाया हू उस पर से कह सकता हूँ कि श्री दिव्यप्रभाजी वस्तुत दिव्यप्रभा है। भक्तामर स्तोत्र के परमार्थ को उद्घाटित करने मे उन्होंने जो एक नई दिशा की ओर प्रयाण किया है, वह अन्तर्हृदय से श्लाघनीय है, समादरणीय है। सभव है, अभिधावादी तर्कशील मनीषी साध्वी श्री दिव्यप्रभाजी की कुछ प्रकल्पित धारणाओ से सहमत न भी हो तथापि इतना तो कहना ही होगा कि उनका यह सुप्रयास कथचित् साधुतावाच्य अवश्य है। एतदर्थ वे शतसहस्रश साधुवादाह हैं। आशा ही नही विश्वास है स्तोत्रप्रिय भक्तजगत मे भक्तामर स्तोत्र का यह सस्करण भक्त की अन्तश्चेतना मे अन्तर्निहित परात्पर परमचैतन्य भाव को जागृत करने में अपना समुचित योगदान दे सकेगा। भक्त हृदय की श्रद्धा को अधिकाधिक उद्दीप्त कर पायेगा।

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