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असंपत्ते अप्पणा य पुवामेव कालं करेजा से णं भंते ! किं आराहए विराहए?, गोयमा! आराहए, नो विराहए ४, व्याख्या- [प्र०] कोई निर्ग्रन्थे गृहपतिना घरे आहार ग्रहण करवाना इरादायी प्रवेश करता कोइ अकृत्य स्थान- प्रतिसेवन कयु होय,
८ शतके प्रज्ञप्तिः 13 पछी ते निग्रन्थना मनमा एम थाय के-"प्रथम हुँ अहींज आ अकार्य स्थान- आलोचन. प्रतिक्रमण, निन्दा अने गर्दा करूं, ( तेना
६ उद्देशः६ ॥३५॥ अनुबन्धने ) ९, विशुद्ध करूँ, पुनः न करवा माटे तैयार थाउं, अने यथायोग्य प्रायश्चित्तरूप तप कर्मनो स्वीकार करुं. त्यारपछी
॥६५९॥ स्थविरोनी पासे जइने आलोचना करीश, यावत् तपकर्मनो स्वीकार करीश.” (एम विचारी) ते निर्ग्रन्थ स्थविरोनी पासे जवा नीकळे अने त्यां पहोंच्या पहेला ते स्थविरो (वातादि दोषना प्रकोपथी) मूक थइ जाय-बोली न शके अर्थात् प्रायश्चित्त न आपी शके तो। हे भगवन् ! शुं ते निग्रन्थ आराधक छे के विराधक छे ? [उ०] हे गौतम! ते निन्थि आराधक छ पण विराधक नथी. (१) [प्र.]
हवे ते निग्रन्थ स्थविरोनी पासे जाय अने त्यां पहोंच्या पहेला ते (निर्ग्रन्थ) मूक थइ जाय तो हे भगवन् ! शुं ते निर्ग्रन्थ आराधक हार के विराधक के ? [उ०] हे गौतम ! ते निग्रन्थ आराधक छे पण विराधक नयी. (२) [प्र०] ते निग्रन्थ स्थविरोनी पासे जवा
नीकळे अने ते पहोंच्या पहेला ते स्थविरो काळ करे तो हे भगवन् ! ते निग्रन्थ आराधक के के विराधक छे ? [उ०] हे गौतम ! ते निग्रन्थ आराधक के पण विराधक नथी. (३) [प्र०] हवे स्थविरोनी पासे जवा निकळेलो ते निर्ग्रन्थ स्थविरोनी पासे पहोंच्या पहेला पोते काळ करी जाय तो हे भगवन् ! शुं ते आराधक छे के विराधक छ ? [उ०] हे गौतम ! ते निग्रन्थ आराधक छे पण विराधक नथी. (४)
से य संपट्टिए संपत्ते थेरा य अमुहा सिया, से णं भंते ! किं आराहा विराह?,गोयमा ! आराहए, नो वि
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