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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः
॥ ६७७॥
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जे प्रकारे आगम होय ते प्रकारे तेणे आगमयी व्यवहार चलाववो, तेमां जो आगम न होय तो जे प्रकारे तेनी पासे श्रुत होय ते श्रुतवडे व्यवहार चलाववो, अथवा जो तेमां श्रुत न होय तो जे प्रकारे तेनी पासे आज्ञा होय ते प्रकारे तेथे आज्ञावडे व्यवहार चलाववो. जो तेमां आज्ञा न होय तो जे प्रकारे तेनी पासे धारणा होय ते प्रकारे धारणा वडे तेणे व्यवहार चलाववो. जो तेमां धारणा न होय तो जे प्रकारे तेनी पासे जीत होय ते प्रकारे तेणे जीतवडे व्यवहार चलात्रवो. ए. प्रमाणे ए पांच व्यवहारोडे व्यबहार चलाववो, ते आ प्रमाणे-आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा अने जीतवडे जे जे प्रकारे तेनी पासे आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा अने जीत होय ते ते प्रकारे तेणे व्यवहार चलाववो. [प्र०] हे भगवन् ! आगमना बलवाळा श्रमण निर्ग्रथो शुं कहे छे ? अर्थात् पंचविध व्यवहार फल शुं कहे छे ? [उ०] ए प्रकारे आ पांच प्रकारना व्यवहारने ज्यारे ज्यारे अने ज्यां ज्यां (उचित होय) त्यारे प्यारे त्यां त्यां अनिश्रपश्रित- रागद्वेषना त्यागपूर्वक सारीरीते व्यवहारतो श्रमण निग्रंथ आज्ञानो आराधक थाय छे. ॥ ३३९ ॥
कवि णं भंते! बंधे पण्णत्ते !, गोयमा ! दुविहे बंधे पन्नत्ते, तंजहा-ईरियावहियाबंधे य संपराइयबंधे य। ईरियावहियण्णं भंते ! कम्मं किं नेरइओ बंधइ तिरिक्खजोणिओ बंधइ तिरिक्खजोणिणी बंधइ मणुस्सो बं० मणुस्सी बं० देवो बं० देवी बं० ?, गोग्रमा ! नो नेरइओ बंधइ नो तिरिक्खजोणिओ बंधइ नो तिरिक्खजोगिणी बंध नो देवो बंधह नो देवी बंधह, पुव्वपडिवन्नए पहुच मणुस्सा य मणुस्सीओ य बं० पडिवज्जमाणए पडुच्च मणुस्सो वा बंधइ १ मणुस्सी वा बंधइ २ मणुस्सा वा बंधंति ३ मणुस्सीओ वा बंधंति ४ अहवा मणुस्सो य मणुस्सी य बंधइ ५ अहवा मणुस्सो य मणुस्सीओ य बंधन्ति ६ अहवा मणुस्सा य मणुस्सी य
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८ शतके उद्देशः ८ ॥६७७॥