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५ शतके उद्देशः८ ॥४०३।।
सप्रदेश हे पण अनर्ध, अमध्य अने अप्रदेश नथी तो तारा मतमा ए प्रमाणे होवाथी परमाणुपुद्गल पण सअर्ध, समध्य अने सप्रव्याख्या देश होवो जोइए पण अनर्ध, अमध्य के अप्रदेश न होवो जोइए, हे आर्य ! जो क्षेत्रादेशथी पण बधां पुद्गलो सअर्ध, समध्य अने प्रज्ञप्तिः || सप्रदेश छे तो तारा मतमा एम होवाथी एकप्रदेशावगाढ पुद्गल, पण सअर्ध, समध्य अने सप्रदेश हो, जोइए, वळी हे आर्य ! ॥४०३॥ | जो कालादेशथी पण सर्व पुद्गलो सअर्ध, समभ्य अने सप्रदेश के तो तारा मतमा ए प्रमाणे होवाथी एक समयनी स्थितिवाळां
| पुद्गलो पण सअर्ध इत्यादि तेज ते प्रकारना होवा जोइए, वळी हे आर्य ! जो भावादेशथी पण सर्व पुद्गलो सअर्ध, समध्य अने
सप्रदेश छे तो तारा मतमा एम होबाथी एकगुण काळ पुद्गल पण सअर्ध इत्यादि तेज प्रकारर्नु हो, जोइए, हवे जो तारा मतमां | एम न होय तो तुं जे कहे छे के, "द्रव्यादेशवडे पण बधां पुद्गलो साध समध्य अने सप्रदेश छे पण अनर्ध, अमध्य अने अप्रदेश नथी, ए प्रमाणे क्षेत्रादेशवडे, कालादेशवडे अने भावादेशनडे पण तुं कहे छे," ते खोटं थाय. त्यारे ते नारदपुत्र अनगारे निग्रं
थीपुत्र अनगार प्रति एम का के, देवानुप्रिय ! ए अर्थने अमे जाणता नथी, जोता नथी; हे देवानुप्रिय ! जो तमे ते अर्थने कहेतां द ग्लानि न पामो तो हुँ आप देवानुप्रियनी पासे ए अर्थने सांभळी, अवधारी जाणवा इच्छु छु.
तए णं से नियंठीपुत्ते अणगारे नारयपुत्तं अणगारं एवं बयासी-दव्बादेसेणवि मे अजो सब्वे पोग्गला सप| देसावि अपदेसावि अणंता, खेत्तादेसेणवि एवं चेव, कालादेसेणवि भावदेसेणवि एवं चेव जे दब्बओ अप्पदेसे | से खेत्तओ नियमा अप्पदेसे, कालओ सिय अपदेसे सिय अपदेसे भावओ सिय सपदेसे सिय अपदेसे। जे | खेत्तओ अप्पदेसे से दब्बओ सिय सपदेसे सिय अपदेसे कालो भयणाए भावओ भयणाए । जहा खेत्तओ
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