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व्याख्या प्रज्ञप्ति ॥५०३॥
उद्देशः२
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क्खायमिति वदमाणस्स एवं अभिसमन्नागयं भवइ--इमे जीवा इमे अजीवा इमे तसा इमे थावरा, तस्स णं सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तहिं पच्चक्खायमिति वदमाणस्स सुपचक्खायं भवति, नो दुपच्चक्वायं भवति, एवं खलु से सुपच्चखाई सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं पच्चक्खायमिति वयमाणे सच्चं भासं भासइ, नो मोसं भासं भासइ, एवं खलु से सच्चवादी सब्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं तिविहं तिविहेणं संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे अकिरिए संवुडे एगंतपंडिए यावि भवति, से तेणटेणं गोममा! एवं वुच्चइ जाव सिय दुपच्चक्रवायं भवति ॥ (सूत्रं २७० )॥
[प्र०] हे भगवन् ! सर्व पाणोमां, सर्व भूतोमां जीवोमां अने सर्व सच्चोमा में (हिसान) प्रत्याख्यान कयु छे' ए प्रमाणे बोलनारने सुप्रत्याख्यान थाय के दुष्प्रत्याख्यान थाय ? [उ०] हे गौतम ! सर्व प्राणोमां यावत् सर्व सच्चोमा प्रत्याख्यान कर्यु छ' ए प्रमाणे बोलनारने कदाच सुप्रत्याख्यान थाय अने कदाच दुष्प्रत्यख्यान थाय. [प्र०] हे भगवन् ! एम शा हेतुथी कहो छो के-सर्व प्राणोमां यावत् सर्व सत्वोमां यावत् कदाच दुष्प्रत्याख्यान थाय ? [उ०] हे गौतम ! सर्व प्राणोमां यावत् सर्व सत्वोमा प्रत्याख्यान
कयु के ए प्रमाणे बोलनार जेने आवा प्रकारचें ज्ञान न होय के "आ जीवो के, आ अजीवो छे, आ त्रसो छे, आ स्थावरो छे" तेनेST'सर्व प्राणोमां यावत् सर्व सत्वोमा प्रत्याख्यान कयु छे' ए प्रमाणे कहेनारने-सुप्रत्याख्यान न थाय, पण दुष्प्रत्याख्यान थाय. ए
ते खरेखर ते दुष्प्रत्याख्यानी 'सर्व प्राणिोमां यावत् सर्व सत्वोमा प्रत्याख्यान कयुं छे' एम बोलतो सत्य भाषा बोलतो नथी, | असत्य भाषा बोले छे. ए प्रमाणे ते मृषावादी सर्व प्राणोमां यावत् सर्व सत्वोमा त्रिविधे त्रिविधे असंयत-संयमरहित, अविरत
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