Book Title: Bhagvati Sutram Part 02
Author(s): Sudharmaswami,
Publisher: Hiralal Hansraj
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व्याख्या प्रज्ञप्ति ॥५१९॥
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सया । सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति ॥ (सूत्रं २७९)॥ ७-३ ॥
[म.] हे भगवन् ! शुं नारको शाश्वत छ के अशाश्वत छे ? [उ०] हे गौतम ! कथंचित् शाश्वत के, अने कथंचित् अशाश्वत | पण छे? [म०] हे भगवन् ! शा कारणथी एम कहो छो के नारको कथंचित् शाश्वत छे अने कथंचित् अशाश्वत के ? [उ०] हे। गौतम ! अब्युच्छित्तिनय-(द्रव्यार्थिकनय) नी अपेक्षाए शाश्वत छे, अने व्युच्छित्तिनयनी (पर्यायनयनी) अपेक्षाए अशाश्वत हे ते | हेतुथी यावत् कथंचित् शाश्वत छे अने कथंचित् अशाश्वत छे. ए प्रमाणे यावत् वैमानिको यावत् कथंचित् अशाश्वत छे. हे भगवन् ! | ते ए प्रमाणे छे. हे भगवन् ! ते ए प्रमाणे के एम कही गौतम यावत् विचरे . ॥ २३९॥
भगवत् सुधर्मखमीप्रणीत श्रीमद् भगवतीमत्रना सातमा शतकमां त्रीजा उद्देशानो मूलार्थ संपूर्ण थयो.
७ शतके उदेशः४ ॥५१९॥
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उद्देशक ४. रायगिहे नगरे जाव एवं वदासी-कतिविहा णं भंते ! संसारममावन्नगा जीवा पन्नत्ता?, गोयमा छविहा संसारसमावन्नगा जीवा पन्नत्ता, तंजहा-पुढविकाइया एवं जहा जीवाभिगमे जाव सम्मत्तकिरियं वा मिच्छत्तकिरियं वा ॥ सेवं भंते सेवं भंतेत्ति । जीवा छब्विह पुढवी जीवाण ठिती भवहिती काए। निल्लेषण अणगारे किरिया सम्मत्तमिच्छत्ता ॥ ५५ ॥ (सत्रं २८०)॥७-४ ॥
[प्र०] राजगृह नगरमा (गौतम ) यावत् ए प्रमाणे बोल्या-हे भगवन् ! संसारी जीवो केटला प्रकारना कह्या छे ? [उ.]
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