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३१.
३२.
३३.
सुधर्म जंबू शिप्य ३४. एह अर्थ जेहन व्याख्याप्रज्ञप्ति'
३५.
३६.
परस्परासंकीर्ण ख्या कहितां
आखे
जे, लक्षण नो अभिधान । प्रभु गौतमादि हित जान ॥ वीर प्रते गौतम प्रमुख पूया प्रश्न सुहाय । प्रतिपादन उत्तर अख्या, ते व्याख्या कहियाय || प्रज्ञाप्यंते पपिये, वीर सुधर्म प्रति जान प्रति, अमल अर्थ सुविधान ॥ विषै तेह तणुं ए नाम । ह.पं. पंचम अंग सुधाम ।।
३७.
बा०- -वि कहितां विविध जीव अजीवादिक अति ही प्रचुर पदार्थ ना विषय, आअभिविधिना किण ही अपेक्षा करिकै संपूर्ण ज्ञेय जाणवा योग्य पदार्थ व्याप्तपर्ण करी, अथवा आङ - मर्यादा करिकै परस्पर माहोमाहि असंकीर्ण लक्षण नो जे अभिधान-कथन तेहने, ख्यानानि कहितां भगवंत श्री महावीरे गौतमादिक विनीत शिष्यां प्रते कह्या—एतलं गौतमादिक ना जूआ-जूआ प्रश्नित पदार्थ तेहने प्रतिपादनानि कहितां प्रत्युत्तर कह्या ते व्याख्या कहिये । प्रज्ञाप्यंते कहितां परूपिय श्री भगवंत सुधर्म प्रते अनै सुधर्म स्वामी जंबू प्रते ए वार्ता छँ जेहने विषै ते व्याख्याप्रज्ञप्ति कहिये ।
अथवा विविधपण करी, तथा विशेष करेह | आख्यायंत कहिये जिके, व्याख्या कहिये तेह | कवन योग्य वस्तु प्रते, 'प्रज्ञाप्यन्ते' इह | परूपियै जेहनें विषै व्याख्याप्रज्ञप्तीह ॥
वा० - विविध पणे करी नाना प्रकार पणे करी अथवा विशेषे करो 'आख्यायन्ते' कहितां कहिये इति व्याख्या -कहिवा योग्य पदार्थ, प्रज्ञाप्यन्ते कहितां परूपियै जे नै विषे ते 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' कहिये ॥
सूत्र
अथवा 'व्याख्यानां' तिको, अर्थ कहिण नूं ईह | प्रज्ञप्ति अति ज्ञान ज्या व्याख्याप्रज्ञप्तीह
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वा०
-अथवा 'व्याख्याना' कहितां अर्थ कहिवा नुं, प्र-अति ही, ज्ञप्ति - ज्ञान छँ जेहने विषै ते 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' कहिये ।।
१. 'विआहपण्णत्ति' शब्द दो पदों का समस्त रूप है। प्रथम पद में विआह शब्द है, वह वि-आख्या इन तीन अक्षरों से बना हुआ है। वि का अर्थ है जीव अजीव आदि विविध पदार्थ |
आङ् उपसर्ग का प्रयोग अभिविधि और मर्यादा दोनों अर्थों में हुआ है। अभिविधि का अर्थ है-किसी अपेक्षा से संपूर्ण ज्ञेय पदार्थों का ग्रहण और मर्यादा का अर्थ है-- परस्पर असंकीर्ण लक्षणों का कथन, ख्या का अर्थ है-प्रतिपादन ।
जीव-अजीव आदि विविध पदार्थों का अभिविधि और मर्यादा के द्वारा प्रतिपादन करने का नाम है—व्याख्या । इसमें गणधर गौतम आदि द्वारा उपस्थित किए गए प्रश्नों का प्रज्ञापन- - प्ररूपण किया जाता है इसलिए इसका नाम व्याख्याप्रज्ञप्ति है।
६ भगवती-जोड़
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३१, ३२. परस्परासंकीर्णलक्षणाभिधानरूपया ख्यानानिभगवतो महावीरस्य गौतमादिविनेयान् प्रति प्रश्नितपदार्थप्रतिपादनानि व्याख्यास्ताः । ( वृ० प० २)
३३. प्रज्ञाप्यन्ते प्ररूप्यन्ते भगवता जम्नामानमभिपस्याम्
३५, ३६. अथवा विविधतया विशेषेण वा व्याख्या: अभिलाप्यपदार्थ त्यस्ता यस्याम् ।
सुधर्मस्वामिना ( वृ००२)
वा० - विविधा जीवाजीवाद पुरतरपदार्थविषया आ- अभिविधिना - कथञ्चिन्निखिलज्ञेयव्याप्त्या मर्यादया वा- परस्परासंकीर्णलक्षणाभिधानरूपया ख्यानानि - भगवतो महावीरस्य गौतमादिविनेयान् प्रति प्रश्नितपदार्थप्रतिपादनानि व्याख्यास्ता: प्रज्ञाप्यन्ते प्ररूयन्ते भगवता धर्मस्वामिना जम्नामानमभि यस्याम् ॥ (बृ००२) आख्यायन्त इति प्रज्ञाप्यन्ते ( वृ० प० २)
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३७. अथवा व्याख्यानाम् अर्थप्रतिपादनानां प्रकृष्टाः ज्ञप्तयो ज्ञानानि यस्यां सा व्याख्याप्रज्ञप्तिः ।
(१०-१०२)
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