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अपभ्रंश भारती 15-16
इस हृदय को कौन शरण देगा- एक्कु अकारणि कुविय-वियप्पें। दिण्णु अणंतु दाहु तउ बप्पें ।
अण्णुवि पइँ देसंतरु जंतहो। को महु सरणु हियइ पजलंतहो। 2.10।।
उपर्युक्त अंश जहाँ एक सामान्य-सा कथन दिखाई देता है वहीं धनपाल का काव्यकौशल और उनकी अभिव्यंजना भंगिमा इस कथन के पीछे छिपी गहरी संवेदना को उजागर कर देती है।
सौत सरूपा की कुटिलता को याद करते हुए पुत्र भविष्यदत्त को समझाते हुए वह कहती है कि सरूपा बन्धुदत्त को भी प्रेरित कर खल बनायेगी। वह अवश्य तुम्हारा अमंगल करेगा तथा लाभ की चिन्ता करते हुए तुम्हारा मूल भी चला जाएगा
जइ सरुव दुट्ठत्तणु भासइ। बन्धुअत्तु खल वयणहिं वासइ। जो तट करइ अमंगलु जंतहो। मूलु विजाइ लाहु चितंतहो। 2.11॥
कमलश्री सरूपा तथा बन्धुदत्त के कुटिल चरित्र को दृष्टि में रखकर भविष्यदत्त को अनेक प्रकार का उपदेश देती है। यहाँ माँ की करुणा के साथ-साथ एक प्रकार का सामाजिक कर्त्तव्यबोध तथा उसका दायित्त्वपूर्ण निर्वाह भी है। वह पुत्र को उपदेश देते हुए कहती है- 'शूर और पण्डित वही है जो यौवन-विकार और रस के वश में नहीं होता। कामदेव से चलायमान नहीं होता, खण्डित वचन नहीं बोलता। दूसरे का धन और परस्त्री ग्रहण नहीं करता। प्रभु को सम्मान देता है, दान करता है। यह कहते-कहते वह अपने दुःखमय दिन याद कर कह उठती है कि मुझे भूल न जाना
जोव्वण-वियार-रस-वस-पसरि, सो सूरउ सो पण्डियउ। चल मम्मण वयणुल्लावएहिं, जो परतियहिं ण खण्डियउ। 2.18॥
निश्चय ही देखने से यह एक माता का पुत्र के लिए उपदेश है। पर कमलश्री भारत की हर माँ को अपने में समेटे हुए है। इसलिये यह केवल उपदेशपरक काव्य नहीं अपितु जीवन-जगत् का यथार्थ चित्र उकेरनेवाला काव्य है। धनपाल का यह ग्रन्थ रसात्मक-बोध की दृष्टि से भी अन्यतम है। इसमें वात्सल्य, शृंगार, करुण, वीर, रौद्र रसों के साथ-साथ सभी रसों का परिपाक है, किन्तु प्रधानता है- वात्सल्य और करुण रस की। और इस रस का सम्भाषण होता है भक्ति रस में। करुण रस से ओत-प्रोत वह दृश्य अधिक मार्मिक बन पड़ा है जहाँ भविष्यदत्त देखता है कि जाने किस अभिशाप के कारण तिलक द्वीप फूलों से लदा है पर उसे सूंघनेवाला कोई नहीं। फलों से लदकर डालियाँ झुक आई है पर उन्हें तोड़कर खानेवाला कोई नहीं। किस विडम्बना से सरोवर निर्जन पड़े हैं, पनघट पर पनिहारिनों के नुपूरों की गूंज नहीं, वहाँ मात्र चुप्पी है